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Tuesday, 4 November 2025

भौम अश्विनी योग Bhaum Ashwini yog


आज विशेष भौमाश्विनी योग

दोस्तों
वैसे तो ये योग साल में एक दो बार मिल जाता है लेकिन आज का ये योग विशिष्ट है क्योंकि आज वैकुंठ चतुर्दशी भी है।

दुर्गा सप्तशती के देवी अथर्वशीर्ष में वर्णित है कि इस योग में देवी अथर्वशीर्ष का पाठ करने वाला महामृत्यु से भी तर जाता है, लेकिन उससे पहले लिखा है कि निशीथ काल में पढ़ने से वाकसिद्धि प्राप्त होती है, इससे देवी का समीप्य प्राप्त होता है।

हरिहर मिलन के दिन में अगर देवी का भी मिलन हो जाए तो उससे उत्तम क्या हो सकता है।

निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासांनिध्यं भवति । प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति । भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति । स महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

कब करें और क्या करें

पुष्प धूप दीप से पूजन कर 

समय
1. शाम 7:10 से 8:40

2., रात 10:30 से 1:30

संभव हो और उपलब्ध हो तो निम्न चारों अथर्वशीर्ष का पाठ करें अन्यथा देवी अथर्वशीर्ष के साथ बाकी के मूल मंत्र जप करें या फिर सभी के मूल मंत्र जप करें।

1. गणपति अथर्वशीर्ष 1 पाठ 
मूल मंत्र: ॐ गं गणपतये नमः - 1 माला 
https://www.facebook.com/share/p/16vadGCfMU/

2: शिव अथर्वशीर्ष 2 पाठ 
मूल मंत्र : ॐ नमः शिवाय - 2 माला
https://www.facebook.com/share/p/1JNgqWVqGm/

3. देवी अथर्वशीर्ष 11 पाठ 
मूल मंत्र: ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै -11 माला
https://www.facebook.com/share/p/1Ckfk5uAck/

4: नारायण अथर्वशीर्ष 2 पाठ 
मूल मंत्र: ॐ नमो नारायणाय 2 माला
https://www.facebook.com/share/p/1FU1noC4mT/

।।जय श्री राम।।

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देवी अथर्वशीर्ष Devi Atharvashirsha


।। देव्यथर्वशीर्षम् ।।

शाक्तपरम्परा में देव्याथर्वशीर्ष पाठ का अत्यधिक महत्व है। इस अथर्वशीर्ष के पाठ करने से, इसके साथ ही अन्य चारों अथर्वशीर्ष गणपति, शिव, नारायण एवं सूर्य अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है। देवीभागवत महापुराण के अनुसार महाशक्ति पराम्बा ही ब्रह्म का स्वरूप हैं। इन्हीं की शक्ति से भगवान् ब्रह्मा विश्व की उत्पत्ति करते हैं, भगवान् विष्णु सृष्टि का पालन करते हैं तथा भगवान् शिव जगत् का संहार करते हैं, अर्थात् सृजन पालन एवं संहार करने वाली पराशक्ति ही हैं और यही दस महाविद्या स्वरूप में अधिष्ठित हैं। इस अथर्वशीर्ष के पाठात्मक अनुष्ठान से पापों का नाश, महासंकट से मुक्ति, भगवत्प्राप्ति, वाणी की सिद्धि एवं भगवत् साक्षात्कार की प्राप्ति होती है । नवार्णमन्त्र “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इसी अथर्वशीर्ष में प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष का पाठ समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति करता है।

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ॥ १॥ 
साब्रवीत् - अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ॥ २॥
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ॥ ३॥

ॐ सभी देवता देवी के समीप गये और विनम्र भाव से पूछने लगे-हे महादेवि ! तुम कौन हो ? ॥ देवी ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ । मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। 

मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य-जगत् मैं ही हूँ ।
 
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ॥ ४॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ॥ ५॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ॥ ६ ॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति ॥७॥

वेद और अवेद भी मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ ।

मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ । 

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को मापने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु ( वामन), ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ।

देवों को उत्तम हवि पहुँचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञादि में (यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि वृत्ति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति प्राप्त करता है ।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। 
          नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥८॥ 
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं, वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् । 
दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥९॥ 
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। 
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप वैष्णवीं सुष्टुतैतु ॥१०॥ 
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥११॥
 महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
 तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥१२॥

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है । महादेवी एवं कल्याणी को सदा नमस्कार है । गुणसाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी प्रकृति देवी को नमस्कार है। दैनिक हम उन्हें प्रणाम करते हैं उन अग्निके समान वर्णवाली, तप से चमकने वाली, दीप्तिमती, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली हे देवि ! तुम्हें नमस्कार है । 

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनुतुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देने वाली वाणीरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमें आशीष प्रदान करें । 

काल को भी समाप्त करने वाली, वेदों द्वारा जिसकी स्तुति होती है, विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ।

हम महालक्ष्मीको जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणीका ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमें सन्मार्गमें प्रवृत्त करें ।

अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव । 
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ १३॥ 
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः । 
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥ १४॥ 
एषाऽऽत्मशक्ति: । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ॥ १५ ।।
नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ॥ १६ ॥ 

हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा - वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल-वर्ण और माया (ह्रीं) - यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ।

ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष, और बाण धारण करने वाली हैं । ये श्रीमहाविद्या हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है । 

भगवती ! आपको नमस्कार है । माता ! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो ।    

सैषाष्टौ वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः । सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च । सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः। सैषा सत्वरजस्तमांसि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । कलाका-ष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ॥ 
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् । 
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ॥ १७॥ 
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् । 
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥१८॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्ध चेतस:।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥१९॥

( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वसु हैं, वही ये एकादश रुद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले
विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस) असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज- तम हैं, वही ये ब्रह्म-विष्णु-रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इन्द्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष प्रदान करने वाली, अन्तरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं ।

वियत्-आकाश (ह) तथा 'ई'कार से युक्त, वीतिहोत्र -अग्नि (र) सहित, अर्धचन्द्र से सुशोभित जो देवीका बीज है, वह सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (हीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान का सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता) है। ॐकारके समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है। संक्षेपमें इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान- क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।) । 

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
          सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः। 
          विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥२०॥ 
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभाम् । 
          पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् । 
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥२१॥

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू - काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र' - दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् 'ऐ' से युक्त (यै) और 'विच्चे' यह नवार्णमन्त्र उपासकों को परमानन्द एवं मोक्षप्रदाता है । 

[इस मन्त्रका अर्थ- हे चैतन्यस्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सत्यस्वरूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम निरन्तर आपका ध्यान करते हैं । हे महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।]

हृदय कमल के मध्य रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूप वाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र धारण करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ । 

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् । 
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥ २२ ॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया । यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता । यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या । यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा । एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥२३॥ 
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी । 
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ २४ ॥

महाभयका नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली और महान् करुणा की साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अन्त नहीं मिलता- इसलिये जिसे अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता-इसलिये जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है-इसलिये जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही समस्त रूपों में सजी हुई है-इसलिये जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिये अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती हैं ।

सब मन्त्रोंमें 'मातृका' – मूलाक्षररूप से रहनेवाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं । 

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् । 
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥ २५ ॥

इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजप-फलमाप्नोति । इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति - शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति । शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः । 

दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते । 
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥ २६ ॥

उन दुर्विज्ञेय, दुराचारनाशिनी और संसारसागर से पार लगाने वाली दुर्गादेवीको इस जगत् से भयभीत हुआ मैं नमस्कार करता हूँ । 

इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के पाठ का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष के बिना पाठ किये ही जो प्रतिमास्थापन आदि करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता । इस अथर्वशीर्ष का १०८ बार जप करने से इसका पुरश्चरण होता है। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवीके कृपा से बड़े से बड़े संकट को पार कर जाता है । 

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्-सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवता सान्निध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

इसका सायंकाल में पाठ करने वाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल में पाठ करने वाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं तथा प्रातः दोनों समय पाठ करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में (तुरीय) सन्ध्या के समय जप करने से वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। नूतन प्रतिमा के समक्ष जप करने से देवता की सन्निधि प्राप्त होती है। प्राण-प्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। अमृतसिद्धियोग में देवी के सान्निध्य में जप करने से वह साधक महामृत्यु से पार हो जाता है। जो इस विधि को जानता है वह महामृत्यु से पार हो जाता है। इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या का वचन है।

।। इस प्रकार देवी अथर्वशीर्ष के माहात्म्य के विषय में बतलाया गया है । यह अथर्वशीर्ष विद्या सर्वमोक्ष प्रदायिनी तथा कल्याण करने वाली है ।

।।जय श्री राम।।

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नारायण अथर्वशीर्ष Narayan Atharvashirsha


।। नारायणाथर्वशीर्ष ।। 

नर = जीव, जीवों के समूह को नार कहते हैं। जीव समूह का जो आश्रय (अधिष्ठाता) है उसे नारायण कहते हैं। परब्रह्म परमात्मा भगवान् विष्णु का द्वितीय नाम नारायण है। ऋक्, यजु, साम, अथर्व इन चारों वेदों का जो सार तत्व है, अर्थात् इन चारों वेदों में नारायण की जो महत्ता प्रतिपादित है, उसी तत्व का विवेचन “नारायण अथर्वशीर्ष” में है। इस श्रुति भाग में नारायण से ही जगत् की उत्पत्ति आदि बताई गई है। अष्टाक्षर मन्त्र “ॐ नमो नारायणाय” का उपदेश भी इसी अथर्वशीर्ष में किया गया है। इस नारायणाथर्वशीर्ष के पाठ से चारों वेदों के पाठ का फल प्राप्त होता है तथा समस्त कल्मष (पाप) जलकर भस्म हो जाते हैं ।

ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति । नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्वेन्द्रियाणि च । खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी । नारायणाद् ब्रह्मा जायते । नारायणाद्रुद्रो जायते । नारायणादिन्द्रो जायते । नारायणात्प्रजापतिः प्रजायते । नारायणाद् द्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते । नारायणात्प्रवर्तन्ते । नारायणे प्रलीयन्ते । एतदृग्वेदशिरोऽधीते ।।१।।

सनातन पुरुष भगवान् नारायण ने संकल्प किया- 'मैं जीवों का सृजन करूँ।' (अतः उन्हीं नारायण से सबकी उत्पत्ति हुई है।) नारायण से ही प्राण उत्पन्न होता है, उन्हीं से मन और सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्रकट होती हैं। आकाश, वायु, तेज, जल तथा सम्पूर्ण विश्व को धारण करने वाली पृथ्वी-इन सबकी नारायणसे ही उत्पत्ति होती है। नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। नारायण से रुद्र प्रकट होते हैं। नारायण से इन्द्र की उत्पत्ति होती है। नारायण से प्रजापति उत्पन्न होते हैं। नारायण से ही बारह आदित्य प्रकट हुए हैं। ग्यारह रुद्र, आठ वसु और सम्पूर्ण छन्द (वेद) नारायण से ही उत्पन्न होते हैं, नारायण की ही प्रेरणा से वे अपने अपने कार्य में नियोजित होते हैं और नारायण में ही लीन हो जाते हैं। यह ऋग्वेदीय श्रुति का कथन है ।

अथ नित्यो नारायणः । ब्रह्मा नारायणः । शिवश्च नारायणः । शक्रश्च नारायणः । कालश्च नारायणः। दिशश्च नारायणः । विदिशश्च नारायणः । ऊर्ध्वं च नारायणः । अधश्च नारायणः । अन्तर्बहिश्च नारायणः। नारायण एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् । निष्कलङ्को निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः शुद्धो देव एको नारायणो न द्वितीयोऽस्ति कश्चित्। य एवं वेद स विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति । एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते ।।२।।

भगवान् नारायण ही नित्य हैं। ब्रह्मा नारायण हैं। शिव भी नारायण हैं। इन्द्र भी नारायण हैं। काल भी नारायण हैं। दिशाएँ भी नारायण हैं। विदिशाएँ (नैऋत्य आदि) भी नारायण हैं। ऊपर भी नारायण हैं। नीचे भी नारायण हैं। भीतर और बाहर भी नारायण हैं। जो कुछ हो चुका है तथा जो कुछ हो रहा है और जो भी कुछ होने वाला है, यह सब भगवान् नारायण ही हैं। एकमात्र नारायण ही निष्कलंक, निरंजन, निर्विकल्प, अनिर्वचनीय एवं विशुद्ध देव हैं, उनके सिवा दूसरा कोई नहीं है। जो इस प्रकार जानता है, वह विष्णु सदृश हो जाता है, वह विष्णु सदृश हो जाता है। यह यजुर्वेदीय श्रुति प्रतिपादित करती है ।

ओमित्यग्रे व्याहरेत् । नम इति पश्चात्। नारायणायेत्युपरिष्टात् ।ओमित्येकाक्षरम् नम इति द्वे अक्षरे। नारायणायेति पञ्चाक्षराणि। एतद्वै नारायण- स्याष्टाक्षरं पदम् । यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति । अनपब्रुवः सर्वमायुरेति । विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यं ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति। एतत्साम- वेदशिरोऽधीते ॥ ३ ॥

सर्वप्रथम “ॐ” इस प्रणव का उच्चारण करें, तत्पश्चात् “नमः” का, अन्त में “नारायणाय” पद का उच्चारण करें। ॐ यह एक अक्षर, नमः ये दो अक्षर नारायणाय यह पांच अक्षर हैं। “ॐ नमो नारायणाय” पद भगवान् नारायण का अष्टाक्षर मन्त्र है । निश्चय ही जो मनुष्य भगवान् नारायण के इस अष्टाक्षर मन्त्र का जप करता है, वह उत्तम कीर्ति से युक्त होकर सम्पूर्ण आयु तक जीवित रहता है। जीवों का आधिपत्य, धन की वृद्धि, गौ आदि पशुओं का स्वामित्व- ये सब भी उसे प्राप्त होते हैं। उसके बाद वह अमृतत्व को प्राप्त करता है, अमृतत्व को प्राप्त होता है (अर्थात् भगवान् नारायण के अमृतमय परमधाम में जाकर परमानन्द का अनुभव करता है ) । यह सामवेदीय श्रुति का वचन है ।

प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम् । अकार उकारो मकार इति । ता अनेकधा समभवत्तदेतदोमिति । यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात् । ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासको वैकुण्ठभुवनं गमिष्यति । तदिदं पुण्डरीकं विज्ञानघनं तस्मात्तडिदाभमात्रम् । ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः । ब्रह्मण्य: पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्युत इति । सर्वभूतस्थमेकं वै नारायणं कारणपुरुषमकारणं परं ब्रह्मोम् । एतदथर्वशिरोऽधीते ।।४।।

आत्मानन्दमय ब्रह्मपुरुष का स्वरूप प्रणव है; 'अ' 'उ' 'म'- ये उसकी मात्राएँ हैं । ये अनेक हैं; इनका ही सम्मिलित रूप 'ॐ' इस प्रकार हुआ है । इस प्रणव का जप करके योगी जन्म-मृत्युरूप संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । ' ॐ नमो नारायणाय' इस मन्त्र की उपासना करने वाला साधक वैकुण्ठधाम में जाता है । वह वैकुण्ठधाम विज्ञानघन कमलवत् है; अतः इसका स्वरूप परम प्रकाशमय है। देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मण्य (ब्राह्मणप्रिय) हैं । भगवान् मधुसूदन ब्रह्मण्य हैं । पुण्डरीक (कमल) के समान नेत्र वाले भगवान् विष्णु ब्रह्मण्य हैं। अच्युत ब्रह्मण्य हैं। सम्पूर्ण भूतों में स्थित एक नारायण ही कारण पुरुष हैं। वे ही कारण रहित परब्रह्म हैं। इस प्रकार अथर्ववेदीय श्रुति प्रतिपादित करती है।

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । तत्सायं प्रातरधीयानः पापोऽपापो भवति । मध्यन्दिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः पञ्चमहापातकोपपातकात्प्रमुच्यते । सर्ववेदपारायणपुण्यं लभते । नारायणसायुज्यमवाप्नोति श्रीमन्नारायणसायुज्यमवाप्नोति य एवं वेद ॥५॥ इत्युपनिषत् ॥

प्रातःकाल इस श्रुति का पाठ करने वाले साधक का रात्रिकाल में हुए पाप का नाश हो जाता है। सायंकाल में इसका पाठ करने वाला मनुष्य दिन में किये हुए पाप का नाश कर डालता है। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय पाठ करने वाला साधक पूर्व का पापी हो तो भी निष्पाप हो जाता है। दोपहर के समय भगवान् सूर्य की ओर मुख करके पाठ करने वाला मानव पाँच महापातकों और उपपातकों से सर्वथा मुक्त हो जाता है। सम्पूर्ण वेदों के पाठ का पुण्यलाभ करता है। वह भगवान् श्रीनारायण का सायुज्य प्राप्त कर लेता है; जो इस प्रकार जानता है, वह श्रीमन्नारायण का सायुज्य प्राप्त कर लेता है । 

।।जय श्री राम।।

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शिव अथर्वशीर्ष Shiv Atharvashirsha


।। शिवाथर्वशीर्षम् ।।

भगवान् आशुतोष की आराधना में शिवाथर्वशीर्षम् का एक विशिष्ट स्थान है । कलेवर की दृष्टि से यह शिवाथर्वशीर्ष अन्य शीर्षों से बड़ा है तथा शिवार्चन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है । इस अथर्वशीर्ष में समस्त देवताओं द्वारा भगवान् रुद्र की स्तुति की गई है तथा शिव-तत्व की भली -भांति विवेचना की गई है । शिवाथर्वशीर्ष द्वारा शिवाराधन से अविचिन्त्य फल की प्राप्ति होती है । 

इसके माहात्म्य में उल्लिखित है कि इसका एकाग्रता पूर्वक पाठ करने से तीर्थें में स्नान का, यज्ञानुष्ठान का, साठ हजार गायत्री मन्त्रजप का, एक लाख रुद्रमन्त्र जप का, दस हजार ओंकार मन्त्रजप का फल प्राप्त होता है तथा इसके साथ ही महाभारत तथा अष्टादश पुराणों के पाठ का फल भी प्राप्त होता है । इसका पाठकर्ता अपने पापों से मुक्त होता है तथा सात पीढ़ियों का उद्धार करता है । ऐसी यह परम पुनीत वैदिक “रुद्राथर्वशीर्ष ऋचा” है । यह लौकिक फलों की प्राप्ति में अत्यन्त सहायक है ।

ॐ देवा ह वै स्वर्गं लोकमायँस्ते रुद्रमपृच्छन्को भवानिति । सोऽब्रवीदहमेकः प्रथममास वर्तामि च भविष्यामि च नान्यः कश्चिन्मत्तो व्यतिरिक्त इति । 

एक बार देवगण परिभ्रमण करते हुए स्वर्गलोक में गये और वहाँ भगवान् रुद्र (शिव) से पूछने लगे- 'आप कौन हैं?' रुद्र भगवान् ने कहा- 'मैं एक हूँ; मैं भूत, भविष्य और वर्तमानकाल में हूँ, ऐसा कोई नहीं है जो मुझसे रहित हो ।

सोऽन्तरादन्तरं प्राविशत् दिशश्चान्तरं प्राविशत् सोऽहं नित्यानित्यो व्यक्ताव्यक्तो ब्रह्माब्रह्माहं प्राञ्चः प्रत्यञ्चोऽहं दक्षिणाञ्च उदञ्चोहं अधश्चोर्ध्वं चाहं दिशश्च प्रतिदिशश्चाहं पुमानपुमान् स्त्रियश्चाहं गायत्र्यहं सावित्र्यहं त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् चाहं छन्दोऽहं गार्हपत्यो दक्षिणाग्निराहवनीयोऽहं सत्योऽहं गौरहं गौर्यहमृगहं यजुरहं सामाहमथर्वाङ्गिरसोऽहं ज्येष्ठोऽहं श्रेष्ठोऽहं वरिष्ठोऽहमापोऽहं तेजोऽहं गुह्योऽहमरण्योऽहमक्षरमहं क्षरमहं पुष्करमहं पवित्रमहमुग्रं च मध्यं च बहिश्च पुरस्ताज्ज्योतिरित्यहमेव सर्वेभ्यो मामेव स सर्वः स मां यो मां वेद स सर्वान् देवान् वेद सर्वांश्च वेदान् साङ्गानपि ब्रह्म ब्राह्मणैश्च गां गोभिर्ब्रह्मणान्ब्राह्मणेन हविर्हविषा आयुरायुषा सत्येन सत्यं धर्मेण धर्मं तर्पयामि स्वेन तेजसा । ततो ह वै ते देवा रुद्रमपृच्छन् ते देवा रुद्रमपश्यन् । ते देवा रुद्रमध्यायन् ततो देवा ऊर्ध्वबाहवो रुद्रं स्तुवन्ति ॥ १ ॥

जो अत्यन्त गूढ़ है, समस्त दिशाओं में रहता है, वही मैं हूं । मैं नित्य एवं अनित्यरूप, व्यक्त एवं अव्यक्तरूप, ब्रह्म एवं अब्रह्मरूप, पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण चारों दिशारूप, ऊर्ध्व और अधोरूप दिशा, प्रतिदिशा, पुमान्, अपुमान्, स्त्री, गायत्री, सावित्री, त्रिष्टुप्, जगती, अनुष्टुप् छन्द, गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय, सत्य, गौ, गौरी, ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, अंगिरस, ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, वरिष्ठ, जल, तेज, गुह्य, अरण्य, अक्षर, क्षर, पुष्कर, पवित्र, उग्र, मध्य, बाह्य, अग्रिम - यह सब तथा ज्योतिरूप मैं ही हूँ । मुझको सबमें रमा (स्थित) हुआ जानो । जो मुझको जानता है, वह समस्त देवों को जानता है और अंगों सहित सब वेदों को भी जानता है । मैं अपने तेज से ब्रह्म को ब्राह्मण से गौ को गौ से, ब्राह्मण को ब्राह्मण से, हविष्य को हविष्य से, आयुष्य को आयुष्य से, सत्य को सत्य से, धर्म को धर्म से तृप्त करता हूँ ।

' वे देव रुद्र से पूछने लगे - रुद्र को देखने लगे और उनका ध्यान करने लगे, फिर उन देवों ने हाथ ऊँचे करके इस प्रकार स्तुति की -

ॐ यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च ब्रह्मा तस्मै वै नमो नमः ।१।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च विष्णुस्तस्मै वै नमो नमः ।२।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च स्कन्दस्तस्मै वै नमो नमः ।३।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्चेन्द्रस्तस्मै वै नमो नमः ।४।
यो वै रुद्रः स भगवान्यश्चाग्निस्तस्मै वै नमो नमः ।५।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च वायुस्तस्मै वै नमो नमः ।६।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च सूर्यस्तस्मै वै नमो नमः ।७।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च सोमस्तस्मै वै नमो नमः ।८।
यो वै रुद्रः स भगवान् ये चाष्टौ ग्रहास्तस्मै वै नमो नमः ।९।
यो वै रुद्रः स भगवान् ये चाष्टौ प्रतिग्रहास्तस्मै वै नमो नमः ।१०।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च भूस्तस्मै वै नमो नमः ।११।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च भुवस्तस्मै वै नमो नमः ।१२।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च स्वस्तस्मै वै नमो नमः ।१३।

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही ब्रह्मा हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही विष्णु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्कन्द हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।३। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही इन्द्र हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।४। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अग्नि हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।५। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही वायु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।६ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सूर्य हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।७। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सोम हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।८। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अष्टग्रह हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है। ९। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अष्टप्रतिग्रह हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१० । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही भूः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।११ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही भुवः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१२। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्वः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१३ ।

यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च महस्तस्मै वै नमो नमः ।१४।
यो वै रुद्रः स भगवान् या च पृथिवी तस्मै वै नमो नमः ।१५।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्चान्तरिक्षं तस्मै वै नमो नमः । १६ ।
यो वै रुद्रः स भगवान् या च द्यौस्तस्मै वै नमो नमः ।१७।
यो वै रुद्रः स भगवान् याश्चापस्तस्मै वै नमो नमः ।१८।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च तेजस्तस्मै वै नमो नमः ।११।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च कालस्तस्मै वै नमो नमः ।२०।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च यमस्तस्मै वै नमो नमः ।२१।
यो वै रुद्रः स भगवान् यश्च मृत्युस्तस्मै वै नमो नमः ।२२।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्चामृतं तस्मै वै नमो नमः ।२३।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्चाकाशं तस्मै वै नमो नमः । २४।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च विश्वं तस्मै वै नमो नमः ।२५ ।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च स्थूलं तस्मै वै नमो नमः ।२६ ।

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही महः हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१४। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही पृथिवी हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१५ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अन्तरिक्ष हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१६ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही द्यौ हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१७। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही आप (जल) हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१८ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही तेज हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।१९ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही काल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२० । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही यम हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२१ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही मृत्यु हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२२। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही अमृत हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२३। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही आकाश हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२४। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही विश्व हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२५ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही स्थूल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२६ ।

यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च सूक्ष्मं तस्मै वै नमो नमः ।२७ ।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च शुक्लं तस्मै वै नमो नमः ।२८ ।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च कृष्णं तस्मै वै नमो नमः ।२९ ।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च कृत्स्नं तस्मै वै नमो नमः ।३० । 
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च सत्यं तस्मै वै नमो नमः ।३१ ।
यो वै रुद्रः स भगवान् यच्च सर्वं तस्मै वै नमो नमः ।३२ ।

जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सूक्ष्म हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२७। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही शुक्ल हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२८ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही कृष्ण हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।२९ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही कृत्स्न (समग्र) हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।३०। 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सत्य हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।३१ । 
जो रुद्र हैं, वे ही भगवान् हैं और वे ही सर्व हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है ।३२ ।

भूस्ते आदिर्मध्यं भुवस्ते स्वस्ते शीर्षं विश्वरूपोऽसि ब्रह्मैकस्त्वं द्विधा त्रिधा वृद्धिस्त्वं शान्तिस्त्वं पुष्टिस्त्वं हुतमहुतं दत्तमदत्तं सर्वमसर्वं विश्वमविश्वं कृतमकृतं परमपरं परायणं च त्वम् । अपाम सोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् । किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मार्त्यस्य। सोमसूर्यपुरस्तात्सूक्ष्मः पुरुषः । 

पृथ्वी आपका आदिरूप, भुवर्लोक आपका मध्यरूप और स्वर्गलोक आपका सिररूप है । आप विश्वरूप केवल ब्रह्मरूप हो । दो प्रकार से या तीन प्रकार से भासते हो । आप वृद्धिरूप, शान्तिरूप, पुष्टिरूप, हुतरूप, अहुतरूप, दत्तरूप, अदत्तरूप, सर्वरूप, असर्वरूप, विश्व, अविश्व, कृत, अकृत, पर, अपर और परायणरूप हो । आपने हमको अमृत पिला के अमृतरूप किया, हम ज्योतिभाव को प्राप्त हुए और हमको ज्ञान प्राप्त हुआ । अब शत्रु हमारा क्या कर सकेंगे ? हमको वे पीड़ा नहीं दे सकेंगे, आप मनुष्य के लिये अमृतरूप हो, चन्द्र-सूर्य से प्रथम और सूक्ष्म पुरुष हो ।

सर्वं जगद्धितं वा एतदक्षरं प्राजापत्यं सौम्यं सूक्ष्मं पुरुषं ग्राह्यमग्राह्येण भावं भावेन सौम्यं सौम्येन सूक्ष्मं सूक्ष्मेण वायव्यं वायव्येन ग्रसति तस्मै महाग्रासाय वै नमो नमः। हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणाः प्रतिष्ठिताः। हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्रो मात्राः परस्तु सः । तस्योत्तरतः शिरो दक्षिणतः पादौ य उत्तरतः स ओङ्कारः य ओङ्कारः स प्रणवः यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तः योऽनन्तस्तत्तारं यत्तारं तच्छुक्लं यच्छुक्लं तत्सूक्ष्मं यत्सूक्ष्मं तद्वैद्युतं यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म यत्परं ब्रह्म स एकः य एकः स रुद्रः यो रुद्रः स ईशानः य ईशानः स भगवान् महेश्वरः ॥ ३ ॥

यह अक्षर और अमृतरूप प्रजापतिका सूक्ष्मरूप है, वही जगत्‌ का कल्याण करने वाला पुरुष है । वही अपने तेज द्वारा ग्राह्य वस्तु को अग्राह्य वस्तु से, भाव को भाव से, सौम्य को सौम्य से, सूक्ष्म को सूक्ष्म से, वायु को वायु से ग्रास करता है । ऐसे महाग्रास करने वाले आपको बार-बार नमस्कार है । सबके हृदय में देवताओं का, प्राणों का तथा आपका वास है । जो नित्य तीन मात्राएँ हैं, आप उनके परे हो । उत्तर में उसका मस्तक है, दक्षिण में पाद है, जो उत्तर में है , वही ॐकाररूप है, जो ॐकार है; वही प्रणवरूप है, जो प्रणव है; वही सर्वव्यापीरूप है । जो सर्वव्यापी है; वही अनन्तरूप है, जो अनन्तरूप है; वही ताररूप है, जो ताररूप है; वही शुक्लरूप है, जो शुक्लरूप है; वही सूक्ष्मरूप और जो सूक्ष्मरूप है; वही विद्युत् रूप है, जो विद्युत् रूप है; वही परब्रह्मरूप है, जो परब्रह्मरूप है; वही एकरूप है, जो एकरूप है; वही रुद्ररूप है, जो रुद्ररूप है; वही ईशानरूप है, जो ईशानरूप है; वही भगवान् महेश्वर हैं । 

अथ कस्मादुच्यत ओङ्कारो यस्मादुच्चार्यमाण एव प्राणानूर्ध्वमुत्क्रामयति तस्मादुच्यते ओङ्कारः । अथ कस्मादुच्यते प्रणवः यस्मादुच्चार्यमाण एव ऋग्यजुः- सामाथर्वाङ्गिरसं ब्रह्म ब्राह्मणेभ्यः प्रणामयति नामयति च तस्मादुच्यते प्रणवः । अथ कस्मादुच्यते सर्वव्यापी यस्मादुच्चार्यमाण एव सर्वान् लोकान् व्याप्नोति स्नेहो यथा पललपिण्डमिव शान्तरूपमोतप्रोतमनुप्राप्तो व्यतिषक्तश्च तस्मादुच्यते सर्वव्यापी । अथ कस्मादुच्यतेऽनन्तो यस्मादुच्चार्यमाण एव तिर्यगूर्ध्वमधस्ताच्चास्यान्तो नोपलभ्यते तस्मादुच्यतेऽनन्तः । अथ कस्मादुच्यते तारं यस्मादुच्चार्यमाण एव गर्भजन्मव्याधिजरामरणसंसार-महाभयात्तारयति त्रायते च तस्मादुच्यते तारम् ।

ॐकार इस कारण है कि ॐकारका उच्चारण करते समय प्राण ऊपर खींचने पड़ते हैं, इसलिये आप ॐकार कहे जाते हैं । प्रणव कहने का कारण यह है कि इस प्रणव के उच्चारण करते समय ऋक्, यजुः, साम, अथर्व, अंगिरस और ब्रह्मा ब्राह्मण को नमस्कार करने आते हैं, इसलिये प्रणव नाम है । सर्वव्यापी कहने का कारण यह है कि इसके उच्चारण करने के समय जैसे तिलों में तेल व्यापक होकर रहता है, वैसे आप सब लोकों में व्यापक हो रहे हैं अर्थात् शान्तरूप से आप सबमें ओत- प्रोत हैं, इसलिये आप सर्वव्यापी कहलाते हैं । अनन्त कहने का कारण यह है कि उच्चारण करते समय ऊपर, नीचे और अगल-बगल कहीं भी आपका अन्त देखने में नहीं आता, इसलिये आप अनन्त कहलाते हो । तारक कहने का कारण यह है कि उच्चारणके समय पर गर्भ, जन्म, व्याधि, जरा और मरणवाले संसारके महाभयसे तारने और रक्षा करनेवाले हैं इसलिए इनको तारक कहते हैं ।

अथ कस्मादुच्यते शुक्लं यस्मादुच्चार्यमाण एव क्लन्दते क्लामयति च तस्मादुच्यते शुक्लम् । अथ कस्मादुच्यते सूक्ष्मं यस्मादुच्चार्यमाण एव सूक्ष्मो भूत्वा शरीराण्यधितिष्ठति सर्वाणि चाङ्गान्यभिमृशति तस्मादुच्यते सूक्ष्मम् । अथ कस्मादुच्यते वैद्युतं यस्मादुच्चार्यमाण एव व्यक्ते महति तमसि द्योतयति तस्मादुच्यते वैद्युतम् । अथ कस्मादुच्यते परं ब्रह्म यस्मात्परमपरं परायणं च बृहद्- बृहत्या बृंहयति तस्मादुच्यते परं ब्रह्म । अथ कस्मादुच्यते एकः यः सर्वान्प्राणान् सम्भक्ष्य सम्भक्षणेनाजः संसृजति विसृजति तीर्थमेके व्रजन्ति तीर्थमेके दक्षिणाः प्रत्यञ्च उदञ्चः प्राञ्चोऽभिव्रजन्त्येके तेषां सर्वेषामिह सङ्गतिः । साकं स एको भूतश्चरति प्रजानां तस्मादुच्यत एकः ।

शुक्ल कहनेका कारण यह है कि (रुद्र शब्द के) उच्चारण करने मात्र से व्याकुलता तथा श्रान्ति होती है । सूक्ष्म कहने का कारण यह है कि उच्चारण करने में सूक्ष्मरूप वाले होकर स्थावरादि सब शरीरों में प्रतिष्ठित रहते हैं तथा शरीर के सभी अंगों में व्याप्त रहते हैं । वैद्युत कहने का कारण यह है कि उच्चारण करते ही महान् अज्ञानान्धकाररूप शरीर को प्रकाशित करते हैं, इसलिये वैद्युतरूप कहा है । परम ब्रह्म कहने का कारण यह है कि पर, अपर और परायण का अधिकाधिक विस्तार करते हो, इसलिये आपको परमब्रह्म कहते हैं । एक कहने का कारण यह है कि सब प्राणों का भक्षण करके अजरूप होकर उत्पत्ति और संहार करते हैं । कोई पुण्य तीर्थ में जाते हैं, कोई दक्षिण, पश्चिम, उत्तर और पूर्वदिशा में तीर्थाटन करते हैं, उन सबकी यही संगति है । सब प्राणियों के साथ में एकरूप से रहते हो, इसलिये आपको एक कहते हैं ।

अथ कस्मादुच्यते रुद्रः यस्मादृषिभिर्नान्यैर्भक्तैर्द्रुतमस्य रूपमुपलभ्यते तस्मादुच्यते रुद्रः । अथ कस्मादुच्यते ईशानः यः सर्वान्देवानीशते ईशानीभिर्जननीभिश्च शक्तिभिः । अभित्वा शूर नोनुमो दुग्धा इव धेनवः । ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशमीशानमिन्द्र तस्थुष इति तस्मादुच्यते ईशानः । अथ कस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः यस्माद्भक्ताञ्ज्ञानेन भजत्यनुगृह्णाति च वाचं संसृजति विसृजति च सर्वान् भावान् परित्यज्यात्मज्ञानेन योगैश्वर्येण महति महीयते तस्मादुच्यते भगवान्महेश्वरः । तदेतद्रुद्र-चरितम् ॥ ४॥ 

आपको रुद्र क्यों कहते हैं? क्योंकि ऋषियों को आपका दिव्य रूप प्राप्त हो सकता है, सामान्य भक्तों को आपका वह रूप सहज प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये आपको रुद्र कहते हैं । ईशान कहने का कारण यह है कि सब देवताओं का ईशानी और जननी नामकी शक्तियों से आप नियमन करते हो । हे शूर ! जैसे दूध के लिये गाय को रिझाते हैं, वैसे ही आपकी हम स्तुति करते हैं । आप ही इन्द्ररूप होकर इस जगत् के ईश और दिव्य दृष्टि वाले हो, इसलिये आपको ईशान कहते हैं । आपको भगवान् महेश्वर कहते हैं, इसका कारण यह है कि आप भक्तों को ज्ञान से युक्त करते हो, उनके ऊपर अनुग्रह करते हो तथा उनके लिये वाणी का प्रादुर्भाव और तिरोभाव करते हो तथा सब भावों को त्यागकर आप आत्मज्ञान से तथा योग के ऐश्वर्य से अपनी महिमा में विराजते हो, इसलिये आपको भगवान् महेश्वर कहते हैं । ऐसा यह रुद्रचरित है । 

एषो ह देवः प्रदिशो नु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्त: । स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ् जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः । एको रुद्रो न द्वितीयाय तस्मै य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः। प्रत्य‌ञ्जनास्तिष्ठति सञ्चुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोप्ता । यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको येनेदं सर्वं विचरति सर्वम् । तमीशानं वरदं देवमीड्यं निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति । क्षमां हित्वा हेतुजालस्य मूलं बुद्धया सञ्चितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः । शाश्वतं वै पुराणमिषमूर्जेण पशवोऽनुनामयन्तं मृत्युपाशान् । तदेतेनात्मन्नेतेनार्धचतुर्थेन मात्रेण शान्तिं संसृजति पशुपाशविमोक्षणम् । या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्मदेवत्या रक्ता वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद् ब्रह्मपदम् ।

यही देव सब दिशाओंमें रहता है। प्रथम जन्म उसीका है, मध्य में तथा अन्त में वही है । वही उत्पन्न होता है और होगा । प्रत्येक व्यक्तिभाव में वही व्याप्त हो रहा है । एक रुद्र ही किसी अन्य की अपेक्षा न रखते हुए अपनी महाशक्तियों से इस लोक को नियम में रखता है । सब उसमें रहते हैं और अन्त में सबका संकोच उसी में होता है। विश्व को प्रकट करने वाला और रक्षण करने वाला वही है । जो सब योनियों में स्थित है और जिससे यह सब व्याप्त और चैतन्य हो रहा है; उस पूज्य, ईशान और वरददेव का चिन्तन करने से मनुष्य परम शान्ति को प्राप्त करते हैं । क्षमा आदि हेतुसमूह के मूल का त्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि से रुद्र में अर्पित करने से रुद्र के साथ एकता को प्राप्त होता है । जो शाश्वत, पुरातन और अपने बल से प्राणियों के मृत्युपाश का नाश करने वाला है, उसके साथ आत्मज्ञानप्रद अर्ध-चतुर्थ मात्रा से वह कर्म के बन्धन को तोड़ता हुआ परम शान्ति प्रदान करता है । आपकी प्रथम ब्रह्मायुक्त मात्रा रक्तवर्णवाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे ब्रह्मा के पद को प्राप्त होते हैं ।

या सा द्वितीया मात्रा विष्णुदेवत्या कृष्णा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम् । या सा तृतीया मात्रा ईशानदेवत्या कपिला वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम् । या सार्धचतुर्थी मात्रा सर्वदेवत्याऽव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्धस्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेत्पदमनामयम् । तदेतदुपासीत मुनयो वाग्वदन्ति न तस्य ग्रहणमयं पन्था विहित उत्तरेण येन देवा यान्ति येन पितरो येन ऋषयः परमपरं परायणं चेति । वालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं जातरूपं वरेण्यम् । तमात्मस्थं ये नु पश्यन्ति धीरास्तेषां शान्तिर्भवति नेतरेषाम् ।

विष्णुदेवयुक्त आपकी दूसरी मात्रा कृष्णवर्ण वाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे वैष्णवपद को प्राप्त होते हैं। आपकी ईशानदेवयुक्त जो तीसरी मात्रा है, वह पीले वर्णवाली है, जो उसका नित्य ध्यान करते हैं, वे ईशान यानी रुद्रलोक को प्राप्त होते हैं । अर्धचतुर्थ मात्रा, जो अव्यक्तरूपमें रहकर आकाश में विचरती है, उसका वर्ण शुद्ध स्फटिक के समान है, जो उसका ध्यान करते हैं, उनको मोक्षपद की प्राप्ति होती है । मुनि कहते हैं कि इस चौथी मात्रा की ही उपासना करनी चाहिये । जो इसकी उपासना करता है, उसको कर्मबन्ध नहीं रहता । यही वह मार्ग है जिस उत्तरमार्ग से देव जाते हैं, जिससे पितृ जाते हैं और जिस उत्तरमार्ग से ऋषि जाते हैं; वही पर, अपर और परायण मार्ग है । जो बालके अग्रभाग के समान सूक्ष्मरूप से हृदय में रहता है; जो विश्वरूप, देवरूप, सुन्दर और श्रेष्ठ है; जो विवेकी पुरुष हृदय में रहने वाले इस परमात्मा को देखते हैं, उनको ही शान्तिभाव प्राप्त होता है, दूसरेको नहीं ।

यस्मिन् क्रोधं यां च तृष्णां क्षमां चाक्षमां हित्वा हेतुजालस्य मूलं बुद्ध्या सञ्चितं स्थापयित्वा तु रुद्रे रुद्रमेकत्वमाहुः । रुद्रो हि शाश्वतेन वै पुराणेनेषमूर्जेण तपसा नियन्ता । अग्निरिति भस्म वायुरिति भस्म जलमिति भस्म स्थलमिति भस्म व्योमेति भस्म सर्वं ह वा इदं भस्म मन एतानि चक्षूंषि यस्माद् व्रतमिदं पाशुपतं यद् भस्म नाङ्गानि संस्पृशेत्तस्माद् ब्रह्म तदेतत्पाशुपतं पशुपाशविमोक्षणाय ॥ ५॥

क्रोध, तृष्णा, क्षमा और अक्षमा से दूर होकर हेतुसमूह के मूलरूप अज्ञान का त्याग करके संचित कर्मों को बुद्धि से रुद्र में अर्पण कर देने से रुद्र में एकता को प्राप्त होते हैं । रुद्र ही शाश्वत और पुराणरूप होने से अपने तप और बल से रसादि सब प्राणि-पदार्थों का नियन्ता है । अग्नि, वायु, जल, स्थल और आकाश-ये सब भस्मरूप हैं । पशुपति की भस्म का जिसके अंग में स्पर्श नहीं होता, उसका मन और इन्द्रियाँ भस्मरूप यानी निरर्थक हैं, इसलिये पशुपति की ब्रह्मरूप भस्म पशु के बन्धन का नाश करने वाली है । 

योऽग्नौ रुद्रो योऽप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश । य इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय नमोऽस्त्वग्नये । यो रुद्रोऽग्नौ यो रुद्रोऽप्स्वन्तर्यो रुद्र ओषधीर्वीरुध आविवेश । यो रुद्र इमा विश्वा भुवनानि चक्लृपे तस्मै रुद्राय वै नमो नमः। यो रुद्रोऽप्सु यो रुद्र ओषधीषु यो रुद्रो वनस्पतिषु । येन रुद्रेण जगदूर्ध्वं धारितं पृथिवी द्विधा त्रिधा धर्ता धारिता नागा येऽन्तरिक्षे तस्मै रुद्राय वै नमो नमः ।

जो रुद्र अग्निमें है, जो रुद्र जलके भीतर है, उसी रुद्र ने औषधियों और वनस्पतियों में प्रवेश किया है । जिस रुद्र ने इस समस्त विश्वको उत्पन्न किया है, उस अग्निरूप रुद्र को नमस्कार है । जो रुद्र अग्नि में, जल के भीतर, औषधियों और वनस्पतियों में स्थित रहता है और जिस रुद्र ने इस समस्त विश्व को और भुवनों को उत्पन्न किया उस रुद्र को बारम्बार प्रणाम है । जो रुद्र जलमें, ओषधियोंमें और वनस्पतियोंमें स्थित है, जिस रुद्रने ऊर्ध्व जगत्‌को धारण कर रखा है, जो रुद्र शिवशक्तिरूपसे और तीन गुणोंसे पृथ्वीको धारण करता है, जिसने अन्तरिक्ष में नागों को धारण किया है, उस रुद्रको बार-बार नमस्कार है।

मूर्धानमस्य संसेव्याप्यथर्वा हृदयं च यत् । मस्तिष्कादूर्ध्वं प्रेरयत्यवमानोऽधिशीर्षतः । तद्वा अथर्वणः शिरो देवकोशः समुज्झितः । तत् प्राणोऽभिरक्षति शिरोऽन्तमथो मनः । न च दिवो देवजनेन गुप्ता न चान्तरिक्षाणि न च भूम इमाः । यस्मिन्निदं सर्वमोतप्रोतं तस्मादन्यन्न परं किञ्चनास्ति । न तस्मात्पूर्वं न परं तदस्ति न भूतं नोत भव्यं यदासीत् । सहस्रपादेकमूर्ध्वा व्याप्तं स एवेदमावरीवर्तिभूतम् । 

इस (भगवान् रुद्र) के प्रणवरूप मस्तक की उपासना करने से अथर्वाऋषि को उच्च स्थिति प्राप्त होती है । यदि इस प्रकार उपासना न की जाय तो निम्न स्थिति प्राप्त होती है । भगवान् रुद्र का मस्तक देवों का समूहरूप व्यक्त है, उसका प्राण और मन मस्तक का रक्षण करता है । देवसमूह, स्वर्ग, आकाश अथवा पृथिवी किसी का भी रक्षण नहीं कर सकते । इस भगवान् रुद्र में सब ओत-प्रोत है । इससे परे कोई अन्य नहीं है, उससे पूर्व कुछ नहीं है; वैसे ही उससे परे कुछ नहीं है, हो गया और होने वाला भी कुछ नहीं है । उसके हजार पैर हैं, एक मस्तक है और वह सब जगत् में व्याप्त हो रहा है ।

अक्षरात् सञ्जायते कालः कालाद् व्यापक उच्यते । व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो यदा शेते रुद्रस्तदा संहार्यते प्रजाः। उच्छ्वसिते तमो भवति तमस आपोऽप्स्वङ्गुल्या मथिते मथितं शिशिरे शिशिरं मथ्यमानं फेनं भवति फेनादण्डं भवत्यण्डाद् ब्रह्मा भवति ब्रह्मणो वायुः वायोरोङ्कार ॐकारात् सावित्री सावित्र्या गायत्री गायत्र्या लोका भवन्ति । अर्चयन्ति तपः सत्यं मधु क्षरन्ति यद्ध्रुवम् । एतद्धि परमं तपः आपो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों नम इति ॥

अक्षर से काल उत्पन्न होता है, कालरूप होने से उसको व्यापक कहते हैं । व्यापक तथा भोगायमान् रुद्र जब शयन करते है, तब प्रजाका संहार होता है । जब वह श्वाससहित होता है, तब तम होता है, तमसे जल (आप) होता है, जल में अपनी अँगुली द्वारा मन्थन करने से वह जल शिशिर ऋतु के द्रव (ओस)-रूप होता है, उसका मन्थन करने से उसमें फेन होता है, फेन से अण्डा होता है, अण्डे से ब्रह्मा होता है, ब्रह्मा से वायु होता है, वायुसे ॐकार होता है। ॐकार से सावित्री होती है, सावित्रीसे गायत्री होती है और गायत्रीसे सब लोक होते हैं। फिर लोग तप तथा सत्य की उपासना करते हैं, जिससे शाश्वत अमृत बहता है । यही परम तप है । यही तप जल, ज्योति, रस, अमृत, ब्रह्म, भूलोक, भुवर्लोक और स्वर्लोक और प्रणव है ।

य इदमथर्वशिरो ब्राह्मणोंऽधीते अश्रोत्रिय: श्रोत्रियो भवति अनुपनीत उपनीतो भवति सोऽग्निपूतो भवति ॥

जो कोई ब्राह्मण इस अथर्वशीर्ष का पारायण करता है वह अश्रोत्रिय हो तो श्रोत्रिय हो जाता है, अनुपनीत (उपनयन संस्कार से विहीन) हो तो उपनीत हो जाता है। वह अग्निपूत (अग्नि से पवित्र) वायुपूत सूर्यपुत और सोमपूत होता है । 

स वायुपूतो भवति स सूर्यपूतो भवति स सोमपूतो भवति स सत्यपूतो भवति स सर्वपूतो भवति स सर्वैर्देवैर्ज्ञातो भवति स सर्वैर्वेदैरनुध्यातो भवति स सर्वेषु तीर्थेषु स्नातो भवति तेन सर्वैः क्रतुभिरिष्टं भवति गायत्र्याः षष्टिसहस्त्राणि जप्तानि भवन्ति इतिहासपुराणानां रुद्राणां शतसहस्त्राणि जप्तानि भवन्ति । प्रणवानामयुतं जप्तं भवति । स चक्षुषः पङ्क्तिं पुनाति । आ सप्तमात् पुरुषयुगान्पुनातीत्याह भगवानथर्वशिरः सकृज्जप्त्वैव शुचिः स पूतः कर्मण्यो भवति । द्वितीयं जप्त्वा गणाधिपत्यमवाप्नोति । तृतीयं जप्त्वैवमेवानुप्रविशत्यों सत्यमों सत्यमों सत्यम् ॥ ७ ॥ इत्युपनिषत् ॥

वह सत्यपूत और सर्वपूत होता है । वह सब देवों से जाना हुआ और सब वेदों से ध्यान किया हुआ होता है । वह सब तीर्थों में स्नान किया हुआ होता है, उसको सब यज्ञों का फल मिलता है । साठ हजार गायत्री के जप का तथा इतिहास और पुराणों के अध्ययन का एवं रुद्र के एक लाख जप का उसको फल प्राप्त होता है, दस सहस्त्र प्रणव के जप का फल उसको मिलता है। उसके दर्शन से मनुष्य पवित्र होता है । वह पूर्व में हुए सात पीढ़ी को तारता है । भगवान् कहते हैं कि इसका एक बार जप करने से पवित्र होता है और कर्म का अधिकारी होता है । दूसरी बार जपने से गणों का अधिपतित्व प्राप्त करता है और तीसरी बार जप करने से सत्यस्वरूप ॐकार में उसका प्रवेश होता है ॥ ७ ॥ इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या है ।

इस प्रकार भगवान् शिव से सम्बंधित इस महाविद्या को बताया गया । यह विद्या साधक का सर्वविध कल्याण करने वाली है एवं मोक्ष प्रदान कराने वाली है ।

।।जय श्री राम।।

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गणपति अथर्वशीर्ष Ganapati Atharvashirsha


।।श्री गणपति अथर्वशीर्ष।।

ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि

त्वमेव केवलं कर्ताऽसि

त्वमेव केवलं धर्ताऽसि

त्वमेव केवलं हर्ताऽसि

त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि

त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1।।

ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि।।2।।

अव त्व मां। अव वक्तारं।

अव श्रोतारं। अव दातारं।

अव धातारं। अवानूचानमव शिष्यं।

अव पश्चातात। अव पुरस्तात।

अवोत्तरात्तात। अव दक्षिणात्तात्।

अवचोर्ध्वात्तात्।। अवाधरात्तात्।।

सर्वतो मां पाहि-पाहि समंतात्।।3।।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।

त्वमानंदमसयस्त्वं ब्रह्ममय:।

त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि।

त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।

त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।4।।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।

सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।

सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।

सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।

त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।

त्वं चत्वारिवाक्पदानि।।5।।

त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।

त्वं देहत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।

त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।

त्वं शक्तित्रयात्मक:।

त्वां योगिनो ध्यायंति नित्यं।

त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं

रूद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं

वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं

ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।।

गणादि पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनंतरं।

अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितं।

तारेण ऋद्धं। एतत्तव मनुस्वरूपं।

गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।

अनुस्वारश्चान्त्यरूपं। बिन्दुरूत्तररूपं।

नाद: संधानं। सं हितासंधि:

सैषा गणेश विद्या। गणकऋषि:

निचृद्गायत्रीच्छंद:। गणपतिर्देवता।

ॐ गं गणपतये नम:।।7।।

एकदंताय विद्‍महे।

वक्रतुण्डाय धीमहि।

तन्नो दंती प्रचोदयात।।8।।

एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमंकुशधारिणम्।

रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।

रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।

रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पै: सुपुजितम्।।

भक्तानुकंपिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्।

आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृ‍ते पुरुषात्परम्।

एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर:।।9।।

नमो व्रातपतये। नमो गणपतये।

नम: प्रमथपतये।

नमस्तेऽस्तु लंबोदरायैकदंताय।

विघ्ननाशिने शिवसुताय।

श्रीवरदमूर्तये नमो नम:।।10।।

एतदथर्वशीर्ष योऽधीते।

स ब्रह्मभूयाय कल्पते।

स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।

स सर्वत: सुखमेधते।

स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।

सायंप्रात: प्रयुंजानोऽपापो भवति।

सर्वत्राधीयानोऽपविघ्नो भवति।

धर्मार्थकाममोक्षं च विंदति।।12।।

इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।

यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति।

सहस्रावर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।

अनेन गणपतिमभिषिंचति

स वाग्मी भवति

चतुर्थ्यामनश्र्नन जपति

स विद्यावान भवति।

इत्यथर्वणवाक्यं।

ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्

न बिभेति कदाचनेति।।14।।

यो दूर्वांकुरैंर्यजति

स वैश्रवणोपमो भवति।

यो लाजैर्यजति स यशोवान भवति

स मेधावान भवति।

यो मोदकसहस्रेण यजति

स वाञ्छित फलमवाप्रोति।

य: साज्यसमिद्भिर्यजति

स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा

सूर्यवर्चस्वी भवति।

सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ

वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।

महाविघ्नात्प्रमुच्यते।

महादोषात्प्रमुच्यते।

महापापात् प्रमुच्यते।

स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।

य एवं वेद इत्युपनिषद्‍।।16।।

।।जय श्री राम।।

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