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Monday 29 February 2016

Hanuman shabar mantra for body pain relief शारीरिक पीड़ा नाशक हनुमान शाबर मन्त्र

शारीरिक पीड़ा नाशक हनुमान शाबर मन्त्र

 मित्रों
आज आपको एक मंत्र बता रहा हूँ
..... ये दर्द निवारक मंत्र है....
सर दर्द, बदन दर्द, हाथ पांव, कमर , पेट या किसी भी प्रकार के दर्द में बहुत जल्दी आराम देता है।
एक कप या कटोरी में जल लेकर जल को २१ बार जप करते हुए... हर मंत्र पर फूँक मारते हुए अभिमंत्रित करके रोगी को देना है....इस मंत्र में ये खास बात भी है.. कि.. अगर दवाई भी ना लग रही हो..... तो दवाई लगनी शुरू हो जाती.....

 ठीक होने के बाद..बाबा हनुमान जी के चरणो में बस ५ लड्डू ही श्रद्धा से अर्पित करना है....


ॐ नमो भगवते चिंतामणी हनुमान,
अंग शूल अति शूल कटी शूल ,
कुक्षि शूल गुद शूल मस्तक शूल सर्व शूल ,
निर्मूलय निर्मूलय कुरु कुरु स्वाहा।।

इस मन्त्र से बच्चों और बड़ों की नजर भी झाड़ सकते हैं। हनुमान जी चरणों का सिंदूर लेकर नजर पीड़ित को तिलक लगा दें और उपरोक्त प्रकार से अभिमन्त्रित जल पीने को दे दें। नजर उतर जायेगी।

अन्य किसी जानकारी , समस्या समाधान और कुंडली विश्लेषण हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।

।।जय श्री राम।।
7579400465
8909521616(whats app)


Saturday 20 February 2016

Indrakshi yantra for Business & vastu इन्द्राक्षी यंत्र व्यापार वृद्धि और वास्तु शांति हेतु

व्यापार वृद्धि एवम् वास्तु शांति हेतु श्री इन्द्राक्षी यन्त्रम्

।।जय श्री राम।।
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Ekakshi Nariyal एकाक्षी नारियल

इस गुप्त नवरात्रि में अभिमन्त्रित एकाक्षी नारियल

।।जय श्री राम।।
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Friday 19 February 2016

Tratak त्राटक

त्राटक
ध्‍यान की सर्वश्रेष्‍ठ विधि
 त्राटक साधना से प्राप्त होती है अलौकिक दिव्य और चमत्कारिक शक्तियाँ...!

त्राटक क्‍या है?
* त्राटक शब्द 'त्रि' के साथ 'टकी बंधने' की संधि से बना है। वस्तुत: शुद्ध शब्द त्र्याटक है, जिसकी व्युत्पत्ति है 'त्रिवारं आसमन्तात् टंकयति इति त्राटकम्'। अर्थात् जब साधक किसी वस्तु पर अपनी दृष्टि और मन को बांधता है, तो वह क्रिया त्र्याटक कहलाती है। त्र्याटक शब्द ही आगे चलकर त्राटक हो गया। किसी वस्तु को जब हम एक बार देखते हैं, तो यह देखने की क्रिया एकटक कहलाती है। उसी वस्तु को जब हम कुछ देर तक देखते हैं, तो द्वाटक कहलाती है। किन्तु जब हम किसी वस्तु को निनिर्मेष दृष्टि से निरंतर दीर्घकाल तक देखते रहते हैं, तो यह क्रिया त्र्याटक या त्राटक कहलाती है। दृष्टि की शक्ति को जाग्रत करने के लिए हठयोग में इस क्रिया का वर्णन किया गया है।

त्राटक‬ एकटक देखने की विधि है ...!

यदि आप लंबे समय तक, कुछ महीनों के लिए, प्रतिदिन एक घंटा ज्योति की लौ को अपलक देखते रहें तो आपकी तीसरी आंख पूरी तरह सक्रिय हो जाती है। आप अधिक प्रकाशपूर्ण, अधिक सजग अनुभव करते हैं।

एकटक देखने की विधि असल में किसी विषय से संबंधित नहीं है, इसका संबंध देखने मात्र से है। क्योंकि जब आप बिना पलक झपकाए एकटक देखते हैं, तो आप एकाग' हो जाते हैं। और मन का स्वभाव है भटकना। यदि आप बिलकुल एकटक देख रहे हैं, जरा भी हिले-डुले बिना, तो मन अवश्य ही मुश्किल में पड़ जाएगा। मन का स्वभाव है एक विषय से दूसरे विषय पर भटकने का, निरंतर भटकते रहने का। यदि आप अंधेरे को, प्रकाश को या किसी भी चीज को एकटक देख रहे हैं, यदि आप बिलकुल एकाग' हैं, तो मन का भटकाव रुक जाता है। क्योंकि यदि मन भटकेगा तो आपकी दृष्टि एकाग' नहीं रह पाएगी और आप विषय को चूकते रहेंगे। जब मन कहीं और चला जाएगा तो आप भूल जाएंगे, आप स्मरण नहीं रख पाएंगे कि आप क्या देख रहे थे। भौतिक रूप से विषय वहीं होगा, लेकिन आपके लिए वह विलीन हो चुका होगा, क्योंकि आप वहां नहीं हैं--आप विचारों में भटक गए हैं।

एकटक देखने का, त्राटक का अर्थ है--अपनी चेतना को भटकने न देना। और जब आप मन को भटकने नहीं देते तो शुरू में वह संघर्ष करता है, कड़ा संघर्ष करता है, लेकिन यदि आप एकटक देखने का अयास करते ही रहे तो धीरे-धीरे मन संघर्ष करना छोड़ देता है। कुछ क्षणों के लिए वह ठहर जाता है। और जब मन ठहर जाता है तो वहां अ-मन है, क्योंकि मन का अस्तित्व केवल गति में ही बना रह सकता है, विचार-प्रकि'या केवल गति में ही बनी रह सकती है। जब कोई गति नहीं होती, तो विचार-प्रकि'या खो जाती है, आप सोच-विचार नहीं कर सकते। क्योंकि विचार का मतलब है गति--एक विचार से दूसरे विचार की ओर गति। यह एक स्‍वाभाविक प्रक्रिया है।

* यदि आप निरंतर एक ही चीज को एकटक देखते रहें, पूर्ण सजगता और होश से...क्योंकि आप मृतवत आंखों से भी एकटक देख सकते हैं, तब आप विचार करते रह सकते हैं--केवल आंखें, मृत आंखें, देखती हुई नहीं। मुर्दे जैसी आंखों से भी आप देख सकते हैं, लेकिन तब आपका मन चलता रहेगा। इस तरह से देखने से कुछ भी नहीं होगा। त्राटक का अर्थ है--केवल आपकी आंखें ही नहीं बल्कि आपका पूरा अस्तित्व आंखों के द्वारा एकाग्र हो। तो कुछ भी विषय हो--यह आपकी पसंद पर निर्भर करता है। यदि आपको प्रकाश अच्छा लगता है, ठीक है; यदि आपको अंधेरा अच्छा लगता है, ठीक है। विषय कुछ भी हो, असली बात है मन को एक जगह रोकने का, उसे एकाग' करने का, जिससे कि भीतरी गतियां, भीतरी कुलबुलाहट रुक सके, भीतरी कंपन रुक सके। आप बस देख रहे हैं--निष्कंप। इतनी गहराई से देखना आपको पूरी तरह से बदल जाएगा। वह एक ध्यान बन जाएगा।

* इसी मन के अन्दर छुपी होती है अलौकिक दिव्य और चमत्कारिक शक्तियाँ। बाह्यमन जब सुप्तावस्था में होता है तब अंर्तमन सक्रिय होने लगता है और इसी अवस्था को ध्यान कहा जाता है। मन को बेलगाम घोड़े की संज्ञा दी गई है क्योंकि मन कभी एक जगह स्थिर नही रहता तथा शरीर की समस्त इद्रियों को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिस करता है। मन हर समय नई -नई इच्छओं को उत्पन्न करता है।

* अंर्तमन का स्वभाव है शांत निर्मल और पवित्र जो मनुष्य को हमेशा अच्छे कार्यो के लिए प्रेरित करता है एक इच्छा पूरी नही हुई कि दुसरी इच्छा जागृत हो जाती है। और मनुष्य उन्ही इच्छाओं की पुर्ति की चेष्टा करता रहता है। जिसके लिए मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, पीड़ा इत्यादि से गुजरना पड़ता है। इसके बावजुद भी जब मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति नही हो पाती तब मन में क्लेश तथा दुख होने लगता है। यदि मन को किसी तरह अपने वश में कर एकाग्रचित कर लिया जाय तब मनुष्य की आत्मोन्ती होने लगती है तथा समस्त प्रकार के विषय विकारों से उपर उठने लगता है और अंर्तमन में छुपे हुये उर्जा के भंडार को जागृत कर अलौकिक सिद्धियों का स्वामी बन सकता है।

* मन को नियंत्रित करना थोड़ा कठिन है परंतु कुछ प्रयासो के बाद मन पर पूर्ण रूप से नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। मन को साधने के लिए शास्त्रों में अनेकों प्रकार के उपाय हैं जिसमे से सबसे आसान व तेज तरीका है त्राटक। त्राटक साधना के माध्यम से कुछ ही दिनों या महिनो के प्रयास से साधक अपने मन पर पूरी तरह नियंत्रण रखने में समर्थ हो सकता है.

* त्राटक साधना से मन की एकाग्रता धीरे-धीरे बढ़ने लगती है। मनुष्य के शरीर की सुप्त शक्तियाँ जागृत होने से शरीर पूर्णतः पवित्र निर्मल तथा निरोग हो जाता है।

* त्राटक के द्वारा मन की एकाग्रता, वाणी का प्रभाव व दृष्टि मात्र से उपासक अपने संकल्प को पूर्ण कर लेता है। इससे विचारों का संप्रेषण, दूसरे के मनोभावों को ज्ञात करना, सम्मोहन, आकर्षण, अदृश्य वस्तु को देखना, दूरस्थ दृश्यों को जाना जा सकता है।

* प्रबल इच्छाशक्ति से साधना करने पर सिद्धियाँ स्वयमेव आ जाती हैं। तप में मन की एकाग्रता को प्राप्त करने की अनेकानेक पद्धतियाँ योग शास्त्र में निहित हैं। इनमें 'त्राटक' उपासना सर्वोपरि है। हठयोग में इसको दिव्य साधना से संबोधित करते हैं। त्राटक के द्वारा मन की एकाग्रता, वाणी का प्रभाव व दृष्टि मात्र से उपासक अपने संकल्प को पूर्ण कर लेता है।

* त्राटक के द्वारा मन की एकाग्रता और वाणी के प्रभाव एवं द्रष्टि मात्र से मनुष्य अपने संकल्प को पा लेता है इससे विचारों का संप्रेषण एवं एक दूसरे के मनोभावो को आप ज्ञात कर सकते है इसके द्वारा सम्मोहन आकर्षण एवं अद्रश्य वास्तु को देखना ,दूर बेठे द्र्श्यो को भी जाना जा सकता है अगर जो व्यक्ति प्रबल इच्छा शक्ति से साधना करे तो सिद्धियाँ स्वयमेव आ जाती है .तन में मन की एकाग्रता को प्राप्त करने की ये विध्या सर्वोपरि है इसे हठयोग भी कह सकते है यह साधना तीन माह तक नियमित करने से साधक को उसके प्रभाव का अनुभव प्राप्त होने लगता है इसमें श्रद्धा धर्य और पवित्रता की भी आवश्यकता है .

त्राटक की विधियॉ: -

दीपक त्राटक की विधि
* यह सिद्धि रात्रि में अथवा किसी अँधेरे वाले स्थान पर करना चाहिए। प्रतिदिन लगभग एक निश्चित समय पर बीस मिनट तक करना चाहिए। स्थान शांत एकांत ही रहना चाहिए। साधना करते समय किसी प्रकार का व्यवधान नहीं आए, इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए। शारीरिक शुद्धि व स्वच्छ ढीले कपड़े पहनकर किसी आसन पर बैठ जाइए।

* अपने आसन से लगभग तीन चार पॉच फुट की दूरी पर मोमबत्ती अथवा दीपक को आप अपनी आँखों के सामने रखिए। अर्थात एक समान दूरी पर दीपक या मोमबत्ती, जो जलती रहे, जिस पर उपासना के समय हवा नहीं लगे व वह बुझे भी नहीं, इस प्रकार रखिए। इसके आगे एकाग्र मन से व स्थिर आँखों से उस ज्योति को देखते रहें। जब तक आँखों में कोई अधिक कठिनाई नहीं हो तब तक देखते रहिये। यह क्रम प्रतिदिन जारी रखें। धीरे-धीरे आपको ज्योति का तेज बढ़ता हुआ दिखाई देगा। कुछ दिनों उपरांत आपको ज्योति के प्रकाश के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देगा।

* इस स्थिति के पश्चात उस ज्योति में संकल्पित व्यक्ति व कार्य भी प्रकाशवान होने लगेगा। इस आकृति के अनुरूप ही घटनाएँ जीवन में घटित होने लगेंगी। इस अवस्था के साथ ही आपकी आँखों में एक विशिष्ट तरह का तेज आ जाएगा। जब आप किसी पर नजरें डालेंगे, तो वह आपके मनोनुकूल कार्य करने लगेगा।

* इस सिद्धि का उपयोग सकारात्मक तथा निरापद कार्यों में करने से त्राटक शक्ति की वृद्धि होने लगती है। दृष्टिमात्र से अग्नि उत्पन्न करने वाले योगियों में भी त्राटक सिद्धि रहती है। इस सिद्धि से मन में एकाग्रता, संकल्प शक्ति व कार्य सिद्धि के योग बनते हैं। कमजोर नेत्र ज्योति वालों को इस साधना को शनैः-शनैः वृद्धिक्रम में करना चाहिए।

पंखा बंद रखे जिससे कि दीपक की लौ ना हिले। दीपक की लौ एक सेण्‍टीमीटर से छोटी रखे। बडी लौ बिना हवा के ही हिलती रहती है जिससे कि बार बार हमारा मन भटक जाता है।

बिन्‍दु त्राटक की विधि

उपर बताई गयी दीपक त्राटक विधि से ही बिन्‍दु त्राटक किया जाता है मगर इसमें दीपक के स्‍थान पर बिन्‍दु का इस्‍तेमाल करते है। उसके लिये किसी सफेद कागज पर एक सेण्‍टीमीटर से छोटा बिन्‍दु बना कर अपनी आंखों के सामने चार छह फीट की दूरी पर टांग ले या दीवार पर बिन्‍दु बना ले। अब उस बिन्‍दु को उपर बताइ गयी दीपक त्राटक विधि के अनुसार देखना प्रारम्‍भ करे। दोनों विधियों का एक ही प्रभाव है। बिन्‍दु त्राटक दिन में व दीपक त्राटक रात में करे।

दर्पण त्राटक की विधि

* अपने कमरे के दरवाजे बंद कर लें, और एक बड़ा दर्पण अपने सामने रख लें। कमरे में अंधेरा होना चाहिए। और फिर दर्पण के बगल में एक छोटी सी लौ--दीपक, मोमबत्ती या लैंप की--इस प्रकार रखें कि वह सीधे दर्पण में प्रतिबिंबित न हो। सिर्फ आपका चेहरा ही दर्पण में प्रतिबिंबित हो, न कि दीपक की लौ। फिर लगातार दर्पण में अपनी स्वयं की आंखों में देखें। यह चालीस मिनट का प्रयोग है, और दो या तीन दिन में ही आप अपनी शकल को बदलता हुआ महसूस करेंगे

* आंखों में देखते रहें, अपनी ही आंखों में। और दो या तीन दिन में ही आप एक बहुत ही विचित्र घटना से अवगत होंगे। आपका चेहरा नये रूप लेने लगेगा। आप घबरा भी सकते हैं। दर्पण में आपका चेहरा बदलने लगेगा। कभी- कभी बिलकुल ही भिन्न चेहरा वहां होगा, जिसे आपने कभी नहीं जाना है कि वह आपका है। पर असल में ये सभी चेहरे आपके हैं। अब अचेतन मन का विस्फोट होना प्रारंभ हो रहा है। ये चेहरे, ये मुखौटे आपके हैं। यदि आपने इसे जारी रखा, तो दो तीन सप्ताह के बाद, किसी भी दिन, सबसे विचित्र घटना घटेगी: अचानक दर्पण में कोई भी चेहरा नहीं है। दर्पण खाली है, आप शून्य में झांक रहे हैं। वहां कोई भी चेहरा नहीं है। बस ...

* यही क्षण है: अपनी आंखें बंद कर लें, और अचेतन का सामना करें। जब दर्पण में कोई चेहरा न हो, बस आंखें बंद कर लें--यही सबसे महत्वपूर्ण क्षण है--आंखें बंद कर लें, भीतर देखें, और आप अचेतन का साक्षात करेंगे। आप नग्न होंगे--बिलकुल नग्न, जैसे आप हैं। सारे धोखे तिरोहित हो जाएंगे।

* यही सच्चाई है, पर समाज ने बहुत सी पर्तें निर्मित कर दी हैं ताकि आप उससे अवगत न हो पाएं। एक बार आप अपने को अपनी नग्नता में, अपनी संपूर्ण नग्नता में जान लेते हैं, तो आप दूसरे ही व्यक्ति होने शुरू हो जाते हैं। तब आप अपने को धोखा नहीं दे सकते। तब आप जानते हैं कि आप क्या हैं। और जब तक आप यह नहीं जानते कि आप क्या हैं, आप कभी रूपांतरित नहीं हो सकते, क्योंकि कोई भी रूपांतरण केवल इसी नग्न वास्तविकता में ही संभव है; यह नग्न वास्तविकता किसी भी रूपांतरण के लिए बीज-रूप है। कोई प्रवंचना रूपांतरित नहीं हो सकती। आपका मूल चेहरा अब आपके सामने है और आप इसे रूपांतरित कर सकते हैं। और असल में, ऐसे क्षण में रूपांतरण की इच्छा मात्र से रूपांतरण घटित हो जाएगा।

दर्पण त्राटक का प्रयोग दिन के प्राक्रतिक प्रकाश में भी कर सकते है।

आज्ञाचक्र ध्‍यान अथवा अंतर त्राटक अथवा ध्‍यान साधना प्रयोग :-
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जिसे हम ध्‍यान कहते है वो आज्ञा चक्र ध्‍यान ही है मगर इसको सीधे ही करना लगभग असम्‍भव है उसके लिये साधक को पहले त्राटक करना चाहिये और एकाग्रता हासिल होने पर ध्‍यान का अभ्‍यास आरम्‍भ करना चाहिये।

* सर्व प्रथम साधक ब्रह्ममुहूर्त मे उठकर अपने पूजा स्थान अपने सोने के कमरे अथवा किसी निर्जन स्थान में सिध्दासन या सुखासन में बैठ कर ध्यान लगाने का प्रयास करे, ध्यान लगाते समय अपने सबसे पहले अपने आज्ञा चक्र पर ध्यान केद्रित करे तथा शरीर को अपने वश मे रखने का प्रयास करें बिल्कुल शांत निश्चल और स्थीर रहें, शरीर को हिलाना डूलना खुजलाना इत्यादि न करें। तथा नियम पुर्वक ध्यान लगाने का प्रयास करें। साधना के पहले नहाना आवश्‍यक नही है प्रयास करे कि उठने पर जितनी जल्‍दी साधना आरम्‍भ कर दे उतना ही लाभ दायक रहता है क्‍योंकि सो कर उठने पर हमारा मन शान्‍त रहता है मगर फिर वो धीरे धीरे चलायमान हो जाता है जितना देर में आप ध्‍यान में बैठेंगे उतना ही देर में वो एकाग्र हो पायेगा।

* साधक जब ध्यान लगाने की चेष्टा करता है तब मन अत्यधिक चंचल हो जाता है तथा मन में अनेकों प्रकार के ख्याल उभरने लगते हैं। साधक विचार को जितना ही एकाग्र करना चाहता है उतनी ही तिव्रता से मन विचलित होने लगता है तथा मन में दबे हुए अनेकों विचार उभर कर सामने आने लगते हैं। त्राटक के बिना सीधे ही ध्‍यान लगाना मुश्किल है इसलिये त्राटक से शुरूआत करके आज्ञा चक्र ध्‍यान पर आइये। बस आंखों को बंद कर लीजिये व आंख के अंदर दिखने वाले अंधेरे को देखते रहिये। जो कुछ दिखे देखते रहिये कोई विश्‍लेशण मत कीजिये। कुछ समय बाद आपको अपनी आंखों के अदर प्रकाश के गोले से दिखना शुरू हो जायेंगे हल्‍के प्रकाश के छोटे गोले आयेंगे वो एक जगह एकत्र होते हुये तेज प्रकाश में बदलते जायेंगे आपस में मिलते जायेंगे। कुछ दिन बाद आपको उनमें कुछ सीन दिखाई देना शुरू हो जायेंगे। एकदम फिल्‍म की तरह। बस उसको देखते रहिये। शुरूआत में ये सीन हमारे मनचाहे नही होते। कुछ भी दिख सकता है अनदेखा दिख सकता है कल्‍पना नही है वो सब विश्‍व में कही ना कही मौजूद है। फिर अभ्‍यास बढ जाने पर एकाग्रता बढ जाने पर हम मनचाहे सीन देख सकते है वो अपना या किसी का भूत भविष्‍य वर्तमान सबकुछ हो सकता है जो आप सोच सकते है वो हो सकता है हजारों लाखों साल पुराना देख सकते है या भविष्‍य मे घटने वाली घटनायें भी देख सकते है।

आज्ञाचक्र ध्‍यान वाली विधि आप अंधेरे में आखे खोल कर देखते हुये भी कर सकते है। उसके लिये कमरे में एकदम अंधेरा होना चाहिये। बस अंधेरे में ध्‍यान से देखते रहिये। इसका वही प्रभाव है जो आज्ञाचक्र घ्‍यान या तीसरे नेत्र पर ध्‍यान का है।

त्राटक के नियम व सावधानियॉ
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पलकों पर ध्‍यान ना दीजिये पलकों को जबरदस्‍ती खुला रखने का प्रयत्‍न ना कीजिये। पलक झपकी है झपकने दीजिये। जबरदस्‍ती आंखे खोले रखने पर आंखों की नमी सूख जाती है वा अंधापन आ जाता है।

त्राटक के बाद आंखों को सादे पानी से अवश्‍य धो ले।

यदि आंखों में किसी प्रकार का कष्‍ट महसूस हो तो ये क्रिया कुछ दिनों के लिये रोक दे। यदि आंख में इंफेक्‍शन वाली कोई मौसमी बीमारी है जिसे आंख उठना कहते है तेा उस समय त्राटक ना करें क्‍योंकि उस दशा में आंखों पर अतिरिक्‍त दबाव पडता है क्‍योंकि बीमारी की दशा में आंखों की नसों में सूजन आ जाती है। आपके द्वारा त्राटक का अभ्‍यास करने पर वो आपको और नुकसान करेगा।

जिन लोगों की नजर कमजोर है वो त्राटक का समय दस मिनट से शुरू करे व धीरे धीरे समय बढाये। धीरे धीरे नजर ठीक हो जायेगी। धेर्य की आवश्‍यकता है त्राटक ध्‍यान या प्राणायाम में किसी प्रकार की जोर जबरदस्‍ती अपने शरीर के साथ ना करे ये जोर जबरदस्‍ती आपको स्‍थाई रूप से नुकसान पहुचा सकती है।

अन्य किसी जानकारी , कुंडली विश्लेषण और समस्या समाधान हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।

।।जय श्री राम।।

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Bilva patra mantra बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र


भगवान शिव की पूजा में बिल्व पत्र यानी बेल पत्र का विशेष महत्व है।

महादेव एक बेलपत्र अर्पण करने से भी प्रसन्न हो जाते है, इसलिए तो उन्हें आशुतोष भी कहा जाता है।

सामान्य तौर पर बेलपत्र में एक साथ तीन पत्तियां जुडी रहती हैं जिसे ब्रह्मा , विष्णु और महेश का प्रतीक माना जाता है।
वैसे तो बेलपत्र की महिमा का वर्णन कई पुराणों में मिलता है, लेकिन शिवपुराण में इसकी महिमा विस्तृत रूप में बतायी गयी है।

शिव पुराण में कहा गया है कि बेलपत्र भगवान शिव का प्रतीक है।
भगवान स्वयं इसकी महिमा स्वीकारते हैं। मान्यता है कि बेल वृक्ष की जड़ के पास शिवलिंग रखकर जो भक्त भगवान शिव की आराधना करते हैं, वे हमेशा सुखी रहते हैं।

बेल वृक्ष की जड़ के निकट शिवलिंग पर जल अर्पित करने से उस व्यक्ति के परिवार पर कोई संकट नहीं आता और वह सपरिवार खुश और संतुष्ट रहता है।

कहते हैं कि बेल वृक्ष के नीचे भगवान भोलेनाथ को खीर का भोग लगाने से परिवार में धनकी कमी नहीं होती है और वह व्यक्ति कभी निर्धन नहीं होता है।

बेल वृक्ष की उत्पत्ति के संबंध में स्कंद पुराण में कहा गया है कि एक बार देवी पार्वती ने अपनी ललाट से पसीना पोछकर फेंका,
जिसकी कुछ बूंदें मंदार पर्वत पर गिरीं, जिससे बेल वृक्ष उत्पन्न हुआ।

इस वृक्ष की जड़ों में गिरिजा, तना में महेश्वरी, शाखाओं में दक्षयायनी, पत्तियों में पार्वती, फूलों में गौरी और फलों में कात्यायनी वास करती हैं।

कहा जाता है कि बेल वृक्ष के कांटों में भी कई.शक्तियां समाहित हैं। यह.माना जाता है कि देवी महालक्ष्मी का भी बेलवृक्ष में वास है। जो व्यक्ति शिव-पार्वती की पूजा बेलपत्र अर्पित कर करते हैं, उन्हें महादेव और देवी पार्वती दोनों का आशीर्वाद मिलता है।

बिल्वपत्र चढाने के 108 मन्त्र -

त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रियायुधम् ।
त्रिजन्म पापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१॥

त्रिशाखैः बिल्वपत्रैश्च अच्छिद्रैः कोमलैः शुभैः ।
तव पूजां करिष्यामि एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२॥

सर्वत्रैलोक्यकर्तारं सर्वत्रैलोक्यपालनम् ।
सर्वत्रैलोक्यहर्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३॥

नागाधिराजवलयं नागहारेण भूषितम् ।
नागकुण्डलसंयुक्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४॥

अक्षमालाधरं रुद्रं पार्वतीप्रियवल्लभम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५॥

त्रिलोचनं दशभुजं दुर्गादेहार्धधारिणम् ।
विभूत्यभ्यर्चितं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६॥

त्रिशूलधारिणं देवं नागाभरणसुन्दरम् ।
चन्द्रशेखरमीशानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७॥

गङ्गाधराम्बिकानाथं फणिकुण्डलमण्डितम् ।
कालकालं गिरीशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८॥

शुद्धस्फटिक सङ्काशं शितिकण्ठं कृपानिधिम् ।
सर्वेश्वरं सदाशान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९॥

सच्चिदानन्दरूपं च परानन्दमयं शिवम् ।
वागीश्वरं चिदाकाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०॥

शिपिविष्टं सहस्राक्षं कैलासाचलवासिनम् ।
हिरण्यबाहुं सेनान्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥११॥

अरुणं वामनं तारं वास्तव्यं चैव वास्तवम् ।
ज्येष्टं कनिष्ठं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१२॥

हरिकेशं सनन्दीशं उच्चैर्घोषं सनातनम् ।
अघोररूपकं कुम्भं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१३॥

पूर्वजावरजं याम्यं सूक्ष्मं तस्करनायकम् ।
नीलकण्ठं जघन्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१४॥

सुराश्रयं विषहरं वर्मिणं च वरूधिनम् I
महासेनं महावीरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१५॥

कुमारं कुशलं कूप्यं वदान्यञ्च महारथम् ।
तौर्यातौर्यं च देव्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१६॥

दशकर्णं ललाटाक्षं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् ।
अशेषपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१७॥

नीलकण्ठं जगद्वन्द्यं दीननाथं महेश्वरम् ।
महापापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१८॥

चूडामणीकृतविभुं वलयीकृतवासुकिम् ।
कैलासवासिनं भीमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१९॥

कर्पूरकुन्दधवलं नरकार्णवतारकम् ।
करुणामृतसिन्धुं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२०॥

महादेवं महात्मानं भुजङ्गाधिपकङ्कणम् ।
महापापहरं देवं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२१॥

भूतेशं खण्डपरशुं वामदेवं पिनाकिनम् ।
वामे शक्तिधरं श्रेष्ठं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२२॥

फालेक्षणं विरूपाक्षं श्रीकण्ठं भक्तवत्सलम् ।
नीललोहितखट्वाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥२३॥

कैलासवासिनं भीमं कठोरं त्रिपुरान्तकम् ।
वृषाङ्कं वृषभारूढं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२४॥

सामप्रियं सर्वमयं भस्मोद्धूलितविग्रहम् ।
मृत्युञ्जयं लोकनाथं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२५॥

दारिद्र्यदुःखहरणं रविचन्द्रानलेक्षणम् ।
मृगपाणिं चन्द्रमौळिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२६॥

सर्वलोकभयाकारं सर्वलोकैकसाक्षिणम् ।
निर्मलं निर्गुणाकारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२७॥

सर्वतत्त्वात्मकं साम्बं सर्वतत्त्वविदूरकम् ।
सर्वतत्त्वस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥२८॥

सर्वलोकगुरुं स्थाणुं सर्वलोकवरप्रदम् ।
सर्वलोकैकनेत्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II२९॥

मन्मथोद्धरणं शैवं भवभर्गं परात्मकम् ।
कमलाप्रियपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३०॥

तेजोमयं महाभीमं उमेशं भस्मलेपनम् ।
भवरोगविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३१॥

स्वर्गापवर्गफलदं रघुनाथवरप्रदम् ।
नगराजसुताकान्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३२॥

मञ्जीरपादयुगलं शुभलक्षणलक्षितम् ।
फणिराजविराजं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३३॥

निरामयं निराधारं निस्सङ्गं निष्प्रपञ्चकम् ।
तेजोरूपं महारौद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३४॥

सर्वलोकैकपितरं सर्वलोकैकमातरम् ।
सर्वलोकैकनाथं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३५॥

चित्राम्बरं निराभासं वृषभेश्वरवाहनम् ।
नीलग्रीवं चतुर्वक्त्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥३६॥

रत्नकञ्चुकरत्नेशं रत्नकुण्डलमण्डितम् ।
नवरत्नकिरीटं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३७॥

दिव्यरत्नाङ्गुलीस्वर्णं कण्ठाभरणभूषितम् ।
नानारत्नमणिमयं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३८॥

रत्नाङ्गुलीयविलसत्करशाखानखप्रभम् ।
भक्तमानसगेहं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II३९॥

वामाङ्गभागविलसदम्बिकावीक्षणप्रियम् ।
पुण्डरीकनिभाक्षं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४०॥

सम्पूर्णकामदं सौख्यं भक्तेष्टफलकारणम् ।
सौभाग्यदं हितकरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४१॥

नानाशास्त्रगुणोपेतं स्फुरन्मङ्गल विग्रहम् ।
विद्याविभेदरहितं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४२॥

अप्रमेयगुणाधारं वेदकृद्रूपविग्रहम् ।
धर्माधर्मप्रवृत्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४३॥

गौरीविलाससदनं जीवजीवपितामहम् ।
कल्पान्तभैरवं शुभ्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४४॥

सुखदं सुखनाशं च दुःखदं दुःखनाशनम् ।
दुःखावतारं भद्रं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४५॥

सुखरूपं रूपनाशं सर्वधर्मफलप्रदम् ।
अतीन्द्रियं महामायं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४६॥

सर्वपक्षिमृगाकारं सर्वपक्षिमृगाधिपम् ।
सर्वपक्षिमृगाधारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४७॥

जीवाध्यक्षं जीववन्द्यं जीवजीवनरक्षकम् ।
जीवकृज्जीवहरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥४८॥

विश्वात्मानं विश्ववन्द्यं वज्रात्मावज्रहस्तकम् ।
वज्रेशं वज्रभूषं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II४९॥

गणाधिपं गणाध्यक्षं प्रलयानलनाशकम् ।
जितेन्द्रियं वीरभद्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५०॥

त्र्यम्बकं मृडं शूरं अरिषड्वर्गनाशनम् ।
दिगम्बरं क्षोभनाशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५१॥

कुन्देन्दुशङ्खधवलं भगनेत्रभिदुज्ज्वलम् ।
कालाग्निरुद्रं सर्वज्ञं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५२॥

कम्बुग्रीवं कम्बुकण्ठं धैर्यदं धैर्यवर्धकम् ।
शार्दूलचर्मवसनं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५३॥

जगदुत्पत्तिहेतुं च जगत्प्रलयकारणम् ।
पूर्णानन्दस्वरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५४॥

सर्गकेशं महत्तेजं पुण्यश्रवणकीर्तनम् ।
ब्रह्माण्डनायकं तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥५५॥

मन्दारमूलनिलयं मन्दारकुसुमप्रियम् ।
बृन्दारकप्रियतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५६॥

महेन्द्रियं महाबाहुं विश्वासपरिपूरकम् ।
सुलभासुलभं लभ्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ५७॥

बीजाधारं बीजरूपं निर्बीजं बीजवृद्धिदम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५८॥

युगाकारं युगाधीशं युगकृद्युगनाशनम् ।
परेशं बीजनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II५९॥

धूर्जटिं पिङ्गलजटं जटामण्डलमण्डितम् ।
कर्पूरगौरं गौरीशं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६०॥

सुरावासं जनावासं योगीशं योगिपुङ्गवम् ।
योगदं योगिनां सिंहं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६१॥

उत्तमानुत्तमं तत्त्वं अन्धकासुरसूदनम् ।
भक्तकल्पद्रुमस्तोमं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६२॥

विचित्रमाल्यवसनं दिव्यचन्दनचर्चितम् ।
विष्णुब्रह्मादि वन्द्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥६३॥

कुमारं पितरं देवं श्रितचन्द्रकलानिधिम् ।
ब्रह्मशत्रुं जगन्मित्रं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६४॥

लावण्यमधुराकारं करुणारसवारधिम् ।
भ्रुवोर्मध्ये सहस्रार्चिं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६५॥

जटाधरं पावकाक्षं वृक्षेशं भूमिनायकम् ।
कामदं सर्वदागम्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II६६॥

शिवं शान्तं उमानाथं महाध्यानपरायणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६७॥

वासुक्युरगहारं च लोकानुग्रहकारणम् ।
ज्ञानप्रदं कृत्तिवासं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६८॥

शशाङ्कधारिणं भर्गं सर्वलोकैकशङ्करम् I
शुद्धं च शाश्वतं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥६९॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणम् ।
गम्भीरं च वषट्कारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७०॥

भोक्तारं भोजनं भोज्यं जेतारं जितमानसम् I
करणं कारणं जिष्णुं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७१॥

क्षेत्रज्ञं क्षेत्रपालञ्च परार्धैकप्रयोजनम् ।
व्योमकेशं भीमवेषं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७२॥

भवज्ञं तरुणोपेतं चोरिष्टं यमनाशनम् ।
हिरण्यगर्भं हेमाङ्गं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७३॥

दक्षं चामुण्डजनकं मोक्षदं मोक्षनायकम् ।
हिरण्यदं हेमरूपं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७४॥

महाश्मशाननिलयं प्रच्छन्नस्फटिकप्रभम् ।
वेदास्यं वेदरूपं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७५॥

स्थिरं धर्मं उमानाथं ब्रह्मण्यं चाश्रयं विभुम् I
जगन्निवासं प्रथममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७६॥

रुद्राक्षमालाभरणं रुद्राक्षप्रियवत्सलम् ।
रुद्राक्षभक्तसंस्तोममेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७७॥

फणीन्द्रविलसत्कण्ठं भुजङ्गाभरणप्रियम् I
दक्षाध्वरविनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥७८॥

नागेन्द्रविलसत्कर्णं महीन्द्रवलयावृतम् ।
मुनिवन्द्यं मुनिश्रेष्ठमेकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II७९॥

मृगेन्द्रचर्मवसनं मुनीनामेकजीवनम् ।
सर्वदेवादिपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८०॥

निधनेशं धनाधीशं अपमृत्युविनाशनम् ।
लिङ्गमूर्तिमलिङ्गात्मं एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥८१॥

भक्तकल्याणदं व्यस्तं वेदवेदान्तसंस्तुतम् ।
कल्पकृत्कल्पनाशं च एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥८२॥

घोरपातकदावाग्निं जन्मकर्मविवर्जितम् ।
कपालमालाभरणं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८३॥

मातङ्गचर्मवसनं विराड्रूपविदारकम् ।
विष्णुक्रान्तमनन्तं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८४॥

यज्ञकर्मफलाध्यक्षं यज्ञविघ्नविनाशकम् ।
यज्ञेशं यज्ञभोक्तारं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ II८५॥

कालाधीशं त्रिकालज्ञं दुष्टनिग्रहकारकम् ।
योगिमानसपूज्यं च एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८६॥

महोन्नतमहाकायं महोदरमहाभुजम् ।
महावक्त्रं महावृद्धं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥८७॥

सुनेत्रं सुललाटं च सर्वभीमपराक्रमम् ।
महेश्वरं शिवतरं एकबिल्वं शिवार्पणम् II८८॥

समस्तजगदाधारं समस्तगुणसागरम् ।
सत्यं सत्यगुणोपेतं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥ ८९॥

माघकृष्णचतुर्दश्यां पूजार्थं च जगद्गुरोः ।
दुर्लभं सर्वदेवानां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९०॥

तत्रापि दुर्लभं मन्येत् नभोमासेन्दुवासरे ।
प्रदोषकाले पूजायां एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९१॥

तटाकं धननिक्षेपं ब्रह्मस्थाप्यं शिवालयम्
कोटिकन्यामहादानं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९२॥

दर्शनं बिल्ववृक्षस्य स्पर्शनं पापनाशनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II९३॥

तुलसीबिल्वनिर्गुण्डी जम्बीरामलकं तथा ।
पञ्चबिल्वमिति ख्यातं एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥९४॥

अखण्डबिल्वपत्रैश्च पूजयेन्नन्दिकेश्वरम् ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९५॥

सालङ्कृता शतावृत्ता कन्याकोटिसहस्रकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥९६॥

दन्त्यश्वकोटिदानानि अश्वमेधसहस्रकम् ।
सवत्सधेनुदानानि एकबिल्वं शिवार्पणम् II९७॥

चतुर्वेदसहस्राणि भारतादिपुराणकम् ।
साम्राज्यपृथ्वीदानं च एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥९८॥

सर्वरत्नमयं मेरुं काञ्चनं दिव्यवस्त्रकम् ।
तुलाभागं शतावर्तं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥९९॥

अष्टोत्तरश्शतं बिल्वं योऽर्चयेल्लिङ्गमस्तके ।
अधर्वोक्तं अधेभ्यस्तु एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१००॥

काशीक्षेत्रनिवासं च कालभैरवदर्शनम् ।
अघोरपापसंहारं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०१॥

अष्टोत्तरशतश्लोकैः स्तोत्राद्यैः पूजयेद्यथा ।
त्रिसन्ध्यं मोक्षमाप्नोति एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥१०२॥

दन्तिकोटिसहस्राणां भूः हिरण्यसहस्रकम्
सर्वक्रतुमयं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् II१०३॥

पुत्रपौत्रादिकं भोगं भुक्त्वा चात्र यथेप्सितम् ।
अन्ते च शिवसायुज्यं एकबिल्वं शिवार्पणम्
॥१०४॥

विप्रकोटिसहस्राणां वित्तदानाच्च यत्फलम् ।
तत्फलं प्राप्नुयात्सत्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०५॥

त्वन्नामकीर्तनं तत्त्वं तवपादाम्बु यः पिबेत्
जीवन्मुक्तोभवेन्नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०६॥

अनेकदानफलदं अनन्तसुकृतादिकम् ।
तीर्थयात्राखिलं पुण्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०७॥

त्वं मां पालय सर्वत्र पदध्यानकृतं तव ।
भवनं शाङ्करं नित्यं एकबिल्वं शिवार्पणम् ॥१०८॥

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Tripur Sundari Stotra त्रिपुर सुंदरी स्तोत्रं

 त्रिपुर सुंदरी स्तोत्रं  


कदम्ब वन चारिणी मुनि कदम्ब कदम्ब कादम्बिनी,
नितम्ब जित भूधरा सुर नितम्बिनी सेवितां |
नवाम्बू रूह्लोचना ममि नवाम्बुदः श्यामला,
त्रिलोचन कुटुम्बिनी त्रिपुर सुंदरी माश्रये |1|

कदम्ब वन वासिनी कनक बल्लकी धारिणी,
महा मणि हारिणी मुखसमुल्ल शद्वारूणी|
दया विभव कारिणी विशद लोचनी चारिणी,
त्रिलोचन कुटुम्बिनी त्रिपुर सुंदरी माश्रये |2|

कदम्ब वन शालया कुच भशेल्ल सन्मालया,
कुचोपमित शैलया गुरुकृपाल्लश द्वेलया |
भदारुण कपोलया मधुर गीत वाचालया ,
कयापि घन नीलया कवचिता वय लीलया |3|

कदम्ब वन मध्यगा कनक मण्डलो पस्यितां,
खड़म्बु रूह वासिनी सतत शिद्ध सौदामिनिम |
विडम्तित जपारुचिं विक चन्यंद्र चूड़ामिणी,
त्रिलोचन कुटुम्बिनी त्रिपुर सुंदरी माश्रये |4|

कुचांचित विपंचिका कुटिल कुन्तला लंकृतां,
कुशेशय निवाशिनी कुटिलचित्त विद्वेशिणी |
मदरूण विलोचनां मनसिजारी सम्मोहिनिमा,
मतंग मुनिकन्यकां मधुर भाषिणी माश्रये |5|

स्मरेत्प्रथम पुष्पिणी रुधिर विन्दुनीलाम्बरा,
गृहीत माधुपत्रिका मधु विधुर्ण नेत्रान्चालां |
घनस्तन भरोन्नता पलित चुलिकां श्यामला,
त्रिलोचन कुटुम्बिनी त्रिपुर सुंदरी माश्रये |6|

सुकुंकुम विलेपनां मालक चुम्बि कस्तूरिकां,
समंद हसितेक्षणां सशरचाप पाशांकुशां |
असेष जनमोहिनी मरूण माल्य भुषाम्बरा,
जपाकुशुम भाशुरां जपविधौ स्मराम्यम्बिकाम |7|

पुरंदर पुरान्ध्रिका चिकुरबंध सौरंध्रिका,
पितामह पतिव्रतां पटुपटीर चचरितां |
मुकुंद रमणी मणि भश्दलंक्रिया कारिणी,
भजामि भुवनम्बिकां सुखधुटिका चोटिकाम |8|

इति श्रीमत परमहंश पारीब्राजकाचार्य श्री मवशंकराचार्य विरचितं त्रिपुर सुंदरी स्तोत्रं सम्पूर्णं ||

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Shaligram Stotram ॥ शालिग्रामस्तोत्रम् ॥

॥ शालिग्रामस्तोत्रम् ॥

श्री गणेशाय नमः ।

अस्य श्रीशालिग्रामस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीभगवान् ऋषिः,
नारायणो देवता, अनुष्टुप् छन्दः,
श्रीशालिग्रामस्तोत्रमन्त्रजपे विनियोगः ॥

युधिष्ठिर उवाच ।

श्रीदेवदेव देवेश देवतार्चनमुत्तमम् ।
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि ब्रूहि मे पुरुषोत्तम ॥ १॥

श्रीभगवानुवाच ।

गण्डक्यां चोत्तरे तीरे गिरिराजस्य दक्षिणे ।
दशयोजनविस्तीर्णा महाक्षेत्रवसुन्धरा ॥ २॥
शालिग्रामो भवेद्देवो देवी द्वारावती भवेत् ।
उभयोः सङ्गमो यत्र मुक्तिस्तत्र न संशयः ॥ ३॥
शालिग्रामशिला यत्र यत्र द्वारावती शिला ।
उभयोः सङ्गमो यत्र मुक्तिस्तत्र न संशयः ॥ ४॥
आजन्मकृतपापानां प्रायश्चित्तं य इच्छति ।
शालिग्रामशिलावारि पापहारि नमोऽस्तु ते ॥ ५॥
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम् ।
विष्णोः पादोदकं पीत्वा शिरसा धारयाम्यहम् ॥ ६॥
शङ्खमध्ये स्थितं तोयं भ्रामितं केशवोपरि ।
अङ्गलग्नं मनुष्याणां ब्रह्महत्यादिकं दहेत् ॥ ७॥
स्नानोदकं पिवेन्नित्यं चक्राङ्कितशिलोद्भवम् ।
प्रक्षाल्य शुद्धं तत्तोयं ब्रह्महत्यां व्यपोहति ॥ ८॥
अग्निष्टोमसहस्राणि वाजपेयशतानि च ।
सम्यक् फलमवाप्नोति विष्णोर्नैवेद्यभक्षणात् ॥ ९॥
नैवेद्ययुक्तां तुलसीं च मिश्रितां विशेषतः पादजलेन विष्णोः ।
योऽश्नाति नित्यं पुरतो मुरारेः प्राप्नोति यज्ञायुतकोटिपुण्यम् ॥ १०॥
खण्डिताः स्फुटिता भिन्ना वन्हिदग्धास्तथैव च ।
शालिग्रामशिला यत्र तत्र दोषो न विद्यते ॥ ११॥
न मन्त्रः पूजनं नैव न तीर्थं न च भावना ।
न स्तुतिर्नोपचारश्च शालिग्रामशिलार्चने ॥ १२॥
ब्रह्महत्यादिकं पापं मनोवाक्कायसम्भवम् ।
शीघ्रं नश्यति तत्सर्वं शालिग्रामशिलार्चनात् ॥ १३॥
नानावर्णमयं चैव नानाभोगेन वेष्टितम् ।
तथा वरप्रसादेन लक्ष्मीकान्तं वदाम्यहम् ॥ १४॥
नारायणोद्भवो देवश्चक्रमध्ये च कर्मणा ।
तथा वरप्रसादेन लक्ष्मीकान्तं वदाम्यहम् ॥ १५॥
कृष्णे शिलातले यत्र सूक्ष्मं चक्रं च दृश्यते ।
सौभाग्यं सन्ततिं धत्ते सर्व सौख्यं ददाति च ॥ १६॥
वासुदेवस्य चिह्नानि दृष्ट्वा पापैः प्रमुच्यते ।
श्रीधरः सुकरे वामे हरिद्वर्णस्तु दृश्यते ॥ १७॥
वराहरूपिणं देवं कूर्माङ्गैरपि चिह्नितम् ।
गोपदं तत्र दृश्येत वाराहं वामनं तथा ॥ १८॥
पीतवर्णं तु देवानां रक्तवर्णं भयावहम् ।
नारसिंहो भवेद्देवो मोक्षदं च प्रकीर्तितम् ॥ १९॥
शङ्खचक्रगदाकूर्माः शङ्खो यत्र प्रदृश्यते ।
शङ्खवर्णस्य देवानां वामे देवस्य लक्षणम् ॥ २०॥
दामोदरं तथा स्थूलं मध्ये चक्रं प्रतिष्ठितम् ।
पूर्णद्वारेण सङ्कीर्णा पीतरेखा च दृश्यते ॥ २१॥
छत्राकारे भवेद्राज्यं वर्तुले च महाश्रियः ।
चिपिटे च महादुःखं शूलाग्रे तु रणं ध्रुवम् ॥ २२॥
ललाटे शेषभोगस्तु शिरोपरि सुकाञ्चनम् ।
चक्रकाञ्चनवर्णानां वामदेवस्य लक्षणम् ॥ २३॥
वामपार्श्वे च वै चक्रे कृष्णवर्णस्तु पिङ्गलम् ।
लक्ष्मीनृसिंहदेवानां पृथग्वर्णस्तु दृश्यते ॥ २४॥
लम्बोष्ठे च दरिद्रं स्यात्पिङ्गले हानिरेव च ।
लग्नचक्रे भवेद्याधिर्विदारे मरणं ध्रुवम् ॥ २५॥
पादोदकं च निर्माल्यं मस्तके धारयेत्सदा ।
विष्णोर्द्दष्टं भक्षितव्यं तुलसीदलमिश्रितम् ॥ २६॥
कल्पकोटिसहस्राणि वैकुण्ठे वसते सदा ।
शालिग्रामशिलाबिन्दुर्हत्याकोटिविनाशनः ॥ २७॥
तस्मात्सम्पूजयेद्ध्यात्वा पूजितं चापि सर्वदा ।
शालिग्रामशिलास्तोत्रं यः पठेच्च द्विजोत्तमः ॥ २८॥
स गच्छेत्परमं स्थानं यत्र लोकेश्वरो हरिः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ २९॥
दशावतारो देवानां पृथग्वर्णस्तु दृश्यते ।
ईप्सितं लभते राज्यं विष्णुपूजामनुक्रमात् ॥ ३०॥
कोट्यो हि ब्रह्महत्यानामगम्यागम्यकोटयः ।
ताः सर्वा नाशमायान्ति विष्णुनैवेद्यभक्षणात् ॥ ३१॥
विष्णोः पादोदकं पीत्वा कोटिजन्माघनाशनम् ।
तस्मादष्टगुणं पापं भूमौ बिन्दुनिपातनात् ॥ ३२॥

। इति श्रीभविष्योत्तरपुराणे श्रीकृष्णयुधिष्ठिरसंवादे
शालिग्रामस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

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Shri Krishna Kilakam श्रीकृष्ण कीलक

श्रीकृष्ण कीलक

ॐ गोपिका-वृन्द-मध्यस्थं, रास-क्रीडा-स-मण्डलम्।
क्लम प्रसति केशालिं, भजेऽम्बुज-रूचि हरिम्।।
विद्रावय महा-शत्रून्, जल-स्थल-गतान् प्रभो !
ममाभीष्ट-वरं देहि, श्रीमत्-कमल-लोचन !।।
भवाम्बुधेः पाहि पाहि, प्राण-नाथ, कृपा-कर !
हर त्वं सर्व-पापानि, वांछा-कल्प-तरोर्मम।।
जले रक्ष स्थले रक्ष, रक्ष मां भव-सागरात्।
कूष्माण्डान् भूत-गणान्, चूर्णय त्वं महा-भयम्।।
शंख-स्वनेन शत्रूणां, हृदयानि विकम्पय।
देहि देहि महा-भूति, सर्व-सम्पत्-करं परम्।।
वंशी-मोहन-मायेश, गोपी-चित्त-प्रसादक !
ज्वरं दाहं मनो दाहं, बन्ध बन्धनजं भयम्।।
निष्पीडय सद्यः सदा, गदा-धर गदाऽग्रजः !
इति श्रीगोपिका-कान्तं, कीलकं परि-कीर्तितम्।
यः पठेत् निशि वा पंच, मनोऽभिलषितं भवेत्।
सकृत् वा पंचवारं वा, यः पठेत् तु चतुष्पथे।।
शत्रवः तस्य विच्छिनाः, स्थान-भ्रष्टा पलायिनः।
दरिद्रा भिक्षुरूपेण, क्लिश्यन्ते नात्र संशयः।।
ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपी-जन-वल्लभाय स्वाहा।।

विशेष – एक बार माता पार्वती कृष्ण बनी तथा श्री शिवजी माँ राधा बने। उन्हीं पार्वती रूप कृष्ण की उपासना हेतु उक्त ‘कृष्ण-कीलक’ की रचना हुई।
यदि रात्रि में घर पर इसके 5 पाठ करें, तो मनोकामना पूरी होगी। दुष्ट लोग यदि दुःख देते हों, तो सूर्यास्त के बाद चैराहे पर एक या पाँच पाठ करे, तो शत्रु विच्छिन होकर दरिद्रता एवं व्याधि से पीड़ित होकर भाग जायेगें।

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