बोलो गंगा मैया की जय
नारद पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास को मंगलवार को शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को हस्त नक्षत्र में जाह्नवी का पहाडों से मर्त्यलोक में अवतरण हुआ। इस दिन वह आद्यगंगा स्नान करने पर दसगुने पाप हर लेती हैं।
ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम् ।
पापान्यस्यां हरति हि तिथौ सा दशैषाद्यगंगा पुण्यं दद्यादपि शतगुणं वाजिमेधक्रतोश्च
आज गंगा स्नान जरूर करें।
ब्रह्म पुराण अध्याय 63
शुक्लपक्षस्य दशमी ज्येष्ठे मासि द्विजोत्तमाः। हरते दश पापानि तस्माद्दशहरा स्मृता।। ६३.१५ ।।
यस्तस्यां हलिनं कृष्णं पश्येद्भद्रां सुसंयतः। सर्वपापाविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं व्रजेन्नरः।। ६३.१६ ।।
ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि दस पापों को हरती है इसलिए उसे दशहरा कहा गया है। उस दिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा का दर्शन करते हैं वे सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक जाते हैं।
स्कन्दपुराण के अनुसार दशहराके दिन दशाश्वमेधमें दस प्रकार स्त्रान करके शिवलिङ्गका दस संख्याके गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और फल अदिसे पूजन करके रात्रिको जागरण करे तो अनन्त फल होता है ।
स्कन्दपुराण में लिखा हुआ है कि,
ज्येष्ठस्य शुक्लदशमी संवत्सरमुखी स्मृता।
तस्यां स्नानं प्रकुवर्तीत दानञ्चैव विशेषतः॥
ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत्सरमुखी मानी गई है इसमें स्नान और दान तो विशेष करके करें।
यां काञ्चित् सरितं पाप्य दद्याद्दर्भैस्तिलोदकम्।
मुच्यते दशमिः पापैः सुमहापातकोपमैः॥
किसी भी नदी पर जाकर अर्घ्य (पूजादिक) एवं तिलोदक (तीर्थ प्राप्ति निमित्तक तर्पण) अवश्य करें। ऐसा करने वाला महापातकों के बराबर के दस पापों से छूट जाता है।
वराह पुराण में लिखा हुआ है कि, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी बुधवारी में हस्त नक्षत्र में श्रेष्ठ नदी स्वर्ग से अवतीर्ण हुई थी वह दस पापों को नष्ट करती है। इस कारण उस तिथि को दशहरा कहते हैं। ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर, आनंद, व्यतिपात, कन्या का चंद्र, वृषभ के सूर्य इन दस योगों में मनुष्य स्नान करके सब पापों से छूट जाता है।
भविष्य पुराण में लिखा हुआ है कि, जो मनुष्य इस दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर दस बार गंगा स्तोत्र को पढ़ता है चाहे वो दरिद्र हो, चाहे असमर्थ हो वह भी प्रयत्नपूर्वक गंगा की पूजा कर उस फल को पाता है।
स्कन्दपुराण काशी खण्ड के अनुसार
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां हस्तसंयुते ।। गंगातीरे तु पुरुषो नारी वा भक्तिभावतः ।।. ३५ ।।
निशायां जागरं कुयाद्गंगां दशविधैर्हरे ।। पुष्पैः सुगंधैर्नैवेद्यैः फलैर्दशदशोन्मितैः ।।३६।।
प्रदीपैर्दशभिर्धूपैर्दशांगैर्गरुडध्वज ।। पूजयेच्छ्रद्धया धीमान्दशकृत्वो विधानतः ।। ३७ ।।
साज्यांस्तिलान्क्षिपेत्तोये गंगायाः प्रसृतीर्दश ।। गुडसक्तुमयान्पिंडान्दद्याच्च दशमंत्रतः ।। ३८ ।।
नमः शिवायै प्रथमं नारायण्यै पदं ततः ।। दशहरायै पदमिति गंगायै मंत्र एष वै ।। ३९ ।।
स्वाहांतः प्रणावादिश्च भवेद्विंशाक्षरो मनुः ।। पूजादानं जपो होमो ऽनेनैव मनुना स्मृतः ।। ४० ।।
हेम्ना रूप्येण वा शक्त्या गंगामूर्तिं विधाय च ।। वस्त्राच्छादितवक्त्रस्य पूर्णकुंभस्य चोपरि ।। ४१ ।।
प्रतिष्ठाप्यार्चयेद्देवीं पंचामृतविशोधिताम् ।। चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च नदीनदनिषेविताम् ।। ४२ ।।
लावण्यामृतनिष्पंद संशीलद्गात्रयष्टिकाम् ।। पूर्णकुंभसितांभोज वरदाभयसत्कराम् ।। ४३ ।।
ततो ध्यायेत्सुसौम्या च चंद्रायुतसमप्रभाम् ।। चामरैर्वीज्यमानां च श्वेतच्छत्रोपशोभिताम ।। ४४ ।।
सुधाप्लावितभूपृष्ठां दिव्यगंधानुलेपनाम् ।। त्रैलौक्यपूजितपदां देवर्षिभिरभिष्टुताम् ।। ४५ ।।
ध्यात्वा समर्च्य मंत्रेण धूपदीपोपहारतः ।। मां च त्वां च विधिं ब्रध्नं हिमवंतं भगीरथम् ।। ४६ ।।
प्रतिमाग्रे समभ्यर्च्य चंदनाक्षतनिर्मितान् ।। दशप्रस्थतिलान्दद्याद्दशविप्रेभ्य आदरात् ।। ४७ ।।
पलं च कुडवः प्रस्थ आढको द्रोण एव च ।। धान्यमानेन बोद्धव्याः क्रमशोमी चतुर्गुणाः ।। ४८ ।।
मत्स्य कच्छप मंडूक मकरादि जलेचरान् ।। हंसकारंडव बक चक्रटिट्टिभसारसान् ।। ४९ ।।
यथाशक्ति स्वर्णरूप्य ताम्रपृष्ठविनिर्मितान् ।। अभ्यर्च्य गंधकुसुमैर्गंगायां प्रक्षिपेद्व्रती ।। ५० ।।
एवं कृत्वा विधानेन वित्तशाठ्यं विवर्जितः ।। उपवासी वक्ष्यमाणैर्दशपापैः प्रमुच्यते ।। ५१ ।।
अदत्तानामुपादानं हिंसाचैवाविधानतः ।। परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ।। ५२ ।।
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चैव सर्वशः ।। असंबद्ध प्रलापश्च वाङ्मयंस्याच्चतुर्विधम् ।। ५३ ।।
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिंतनम् ।। वितथाभिनिवेशश्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ।। ।। ५४ ।।
एतैर्दशविधैः पापैर्दशजन्मसमुद्भवैः ।। मुच्यते नात्र संदेहः सत्यं सत्यं गदाधर ।। ५५ ।।
उत्तरेन्नरकात्पूर्वान्दशघोराद्दशावरान् ।। वक्ष्यमाणमिदं स्तोत्रं गंगाग्रे श्रद्धया जपेत् ।। ५६ ।।
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र युक्त दशमी तिथि को स्त्री हो या पुरुष भक्ति भाव से गंगाजी के तट पर रात्रि में जागरण करें और दस प्रकार के दस-दस सुगन्धित पुष्प, फल, नैवैद्य, दस दीप और दशांग धुप के द्वारा बुद्धिमान पुरुष श्रद्धा और विधि के साथ दस बार गंगा जी की पूजा करे। गंगाजी के जल में घृतसहित तिलों की दस अञ्जलि डालें फिर गुड़ और सत्तू के दस पिण्ड बनाकर उन्हें भी गंगाजी में डालें। यह सब कार्य मंत्र द्वारा होना चाहिए। मंत्र इस प्रकार है - ‘ॐ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा’ यह बीस अक्षर का मंत्र है। गंगाजी के लिए पूजा, दान, जप, होम सब इसी मंत्र से करने योग्य है। इस प्रकार मंत्रोच्चारण के साथ धूप, दीप आदि समर्पण करते हुए पूजा करके मुझ शिव का, तुम विष्णु का, ब्रह्मा का, सूर्य का, हिमवान पर्वत का और राजा भागीरथ का भलीभाँति पूजन करे। दस ब्राह्मणों को आदरपूर्वक दस सेर तिल दें। इस प्रकार विशां से पूजा संपन्न करके दिनभर उपवास करने वाला पुरुष निम्नांकित दस पापों से मुक्त हो जाता है। बिना दी हुई वस्तु लेना, निषिद्ध हिंसा, परस्त्री-संगम - यह तीन प्रकार का दैहिक पाप माना गया है। कठोर वचन मुँह से निकालना, झूठ बोलना, सब ओर चुगली करना और अंट-संट बातें करना - ये वाणी से होने वाले चार प्रकार के पाप हैं। दूसरों के धन को लेने का विचार करना, मन से दूसरों का बुरा सोचना और असत्य वस्तुओं में आग्रह रखना - ये तीन प्रकार के मानसिक पाप कहे गए हैं। पूर्वोक्त प्रकार से दान-पूजा और व्रत करने वाला पुरुष दस जन्मों में उपार्जित इन दस प्रकार के पापों से निःसन्देह छूट जाता है। तदन्तर गंगाजी के सम्मुख श्रद्धापूर्वक इस स्तोत्र को पढ़े।
॥ श्री गङ्गा स्तुति - स्कन्द पुराणम् ॥
ईश्वर उवाच -
ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमो नमः ।
नमस्ते विष्णुरूपिण्यै ब्रह्ममूर्त्यै नमो नमः ॥१॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै शाङ्कर्यै ते नमो नमः ।
सर्वदेव स्वरूपिण्यै नमो भेषज मूर्त्तये ॥२॥
सर्वस्य सर्व व्याधीनां भिषक् श्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते ।
स्थास्नु जङ्गम संभूत विषहन्त्र्यै नमोऽस्तु ते ॥३॥
संसार विष नाशिन्यै जीवनायै नमोऽस्तु ते ।
ताप त्रितय संहन्त्र्यै प्राणेश्यै ते नमो नमः ॥४॥
शान्ति सन्तान कारिण्यै नमस्ते शुद्ध मूर्त्तये ।
सर्व संशुद्धि कारिण्यै नमः पापारि मूर्त्तये ॥५॥
भुक्ति मुक्ति प्रदायिन्यै भद्रदायै नमो नमः ।
नमस् त्रैलोक्य भूषायै त्रिपथायै नमो नमः ॥६॥
नमस् त्रिशुक्ल संस्थायै क्षमावत्यै नमो नमः ।
त्रिहुताशन संस्थायै तेजोवत्यै नमो नमः ॥७॥
नन्दायै लिङ्गधारिण्यै सुधधारात्मने नमः ।
नमस्ते विश्व मुख्यायै रेवत्यै ते नमो नमः ॥८॥
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु लोकधात्र्यै नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते विश्व मित्रायै नन्दिन्यै ते नमो नमः ॥९॥
पृथ्व्यै शिवा ऽ मृतायै च सुवृषायै नमो नमः ।
परापर शताढ्यायै तारायै ते नमो नमः ॥१०॥
पाशजाल निकृन्तिन्यै अभिन्नायै नमोऽस्तु ते ।
शान्तायै च वरिष्ठायै वरदायै नमो नमः ॥११॥
उग्रायै सुखजग्ध्तै च सञ्जीविन्यै नमोऽस्तु ते ।
ब्रह्मिष्ठायै ब्रह्मादायै दुरितघ्न्यै नमो नमः ॥१२॥
प्रणतार्त्ति प्रभञ्जिन्यै जगन्मात्रे नमोऽस्तु ते ।
सर्वापत् प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो नमः ॥१३॥
शरणागत दीनार्त्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्यार्त्ति हरे देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥१४॥
निर्लोपायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै ते नमो नमः ।
परापर परायै च गङ्गे निर्वाण दायिनी ॥१५॥
गङ्गे ममा ऽ ग्रतो भूया गङ्गे मे तिष्ठ पृष्ठतः ।
गङ्गे मे पार्श्वयोरेधि गङ्गे त्वय्यस्तु मे स्थितिः ॥१६॥
आदौ त्वं अन्ते मध्ये च सर्वं त्वं गाङ्गते शिवे ।
त्वमेव मूलं प्रकृतिस् त्वं पुमान् पर एव हि ॥१६॥
गङ्गे त्वं परमात्मा च शिवस् तुभ्यं नमः शिवे ॥१७॥
॥ फलश्रुतिः ॥
य इदं पठते स्तोत्रं शृणुयाच् छ्रद् धया ऽ पि यः ।
दशधा मुच्यते पापैः काय वाक् चित्त संभवैः ॥१८॥
रोगस्थो रोगतो मुच्येद् विपद्भ्यश् च विपद्यतः ।
मुच्यते बन्धनाद् बद्धो भीतो भीतेः प्रमुच्यते ॥१९॥
सर्वान् कामान् अवाप्नोति प्रेत्य च त्रिदिवं व्रजेत् ।
दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यस्त्री परिजीवितः ॥२०॥
गृहेऽपि लिखितं यस्य सदा तिष्ठति धारितम् ।
ना ऽ ग्नि चौर भयं तस्य न सर्पादि भयं क्वचित् ॥२१॥
ज्येष्ठे मासे सिते पक्षे दशमी हस्त संयुता ।
संहरेत् त्रिविधं पापं बुध वारेण संयुता ॥२२॥
तस्यां दशम्यां एतच् च स्तोत्रं गङ्गा जले स्थितः ।
यः पठेद् दशकृत्वस्तु दरिद्रो वापि चा ऽ क्षमः ॥२३॥
सोऽपि तत्फलं आप्नोति गङ्गां संपूज्य यत्नतः ।
पूर्वोक्तेन विधानेन यत्फलं संप्रकीर्तितम् ॥२४॥
यथा गौरी तथा गङ्गा तस्माद गौर्यास्तु पूजने ।
यो विधिर् विहितः सम्यक् सोऽपि गङ्गा प्रपूजने ॥२५॥
यथाऽहं त्वं तथा विष्णो यथा त्वन्तु तथा ह्युमा ।
उमा यथा तथा गङ्गा च तरूपं न भिद्यते ॥२६॥
विष्णु रुद्रा ऽ न्तरं चैव यो ब्रूते मूढ धीस्तु सः ॥२७॥
॥ इति स्कन्दे महापुराणे एकाशीति साहस्र्यां संहितायां तृतीये काशी खण्डे श्रीगङ्गा दशहरा स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
पद्म पुराण में भक्ति को तीन भागों में विभक्त करके इन दस दोषों को दूर करना बताया है। ध्यान, धारणा, बुद्धि आदि द्वारा जो वेदों का स्मरण है, यह मानसी भक्ति है जो विष्णु में प्रीति बढाने वाली है। मन्त्रवेद समुच्चार, अविश्रांत विचिंतन, जाप्य व आरण्यक वाचिकी भक्ति कहलाती है। व्रतोपवास, नियम, पंच इन्द्रियों की जय कायिकी भक्ति कहलाती है। कायिकी भक्ति में नृत्य, गीत, बलि, भक्ष्य, भोज्य, अन्नपान आदि के द्वारा की जाने वाली लौकिक भक्ति भी सम्मिलित है। स्पष्ट है कि यदि इन तीन प्रकार की भक्तियों में से एक में भी रस की गंगा बहने लगे तो पाप तो दूर हो ही जाएंगे।
विविधा भक्तिरुद्दिष्टा मनोवाक्कायसंभवा ।।
लौकिकी वैदिकी चापि भवेदाध्यात्मिकी तथा । ध्यानधारणया बुद्ध्या वेदानां स्मरणं हि यत् ।।
विष्णुप्रीतिकरी चैषा मानसी भक्तिरुच्यते । मंत्रवेदसमुच्चारैरविश्रांत विचिंतनैः ।।
जाप्यैश्चारण्यकैश्चैव वाचिकी भक्तिरुच्यते । व्रतोपवासनियमैः पञ्चेंद्रियजयेन च ।।
कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिः सर्वार्थसाधिनी । भूषणैर्हेमरत्नांकैश्चित्राभिर्वाग्भिरेव च ।।
वासः प्रतिसरैः सूत्रैः पावकव्यजनोच्छ्रितैः । नृत्यवादित्रगीतैश्च सर्वबल्युपहारकैः ।।
भक्ष्यभोज्यान्नपानैश्च या पूजा क्रियते नरैः । नारायणंसमुद्दिश्य भक्तिः सा लौकिकी मता ।।
कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिःसर्वार्थसाधिकी ।
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नारद पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास को मंगलवार को शुक्लपक्ष में दशमी तिथि को हस्त नक्षत्र में जाह्नवी का पहाडों से मर्त्यलोक में अवतरण हुआ। इस दिन वह आद्यगंगा स्नान करने पर दसगुने पाप हर लेती हैं।
ज्येष्ठे मासि क्षितिसुतदिने शुक्लपक्षे दशम्यां हस्ते शैलादवतरदसौ जाह्नवी मर्त्यलोकम् ।
पापान्यस्यां हरति हि तिथौ सा दशैषाद्यगंगा पुण्यं दद्यादपि शतगुणं वाजिमेधक्रतोश्च
आज गंगा स्नान जरूर करें।
ब्रह्म पुराण अध्याय 63
शुक्लपक्षस्य दशमी ज्येष्ठे मासि द्विजोत्तमाः। हरते दश पापानि तस्माद्दशहरा स्मृता।। ६३.१५ ।।
यस्तस्यां हलिनं कृष्णं पश्येद्भद्रां सुसंयतः। सर्वपापाविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं व्रजेन्नरः।। ६३.१६ ।।
ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि दस पापों को हरती है इसलिए उसे दशहरा कहा गया है। उस दिन जो लोग अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हुए श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा का दर्शन करते हैं वे सब पापों से मुक्त हो विष्णुलोक जाते हैं।
स्कन्दपुराण के अनुसार दशहराके दिन दशाश्वमेधमें दस प्रकार स्त्रान करके शिवलिङ्गका दस संख्याके गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और फल अदिसे पूजन करके रात्रिको जागरण करे तो अनन्त फल होता है ।
स्कन्दपुराण में लिखा हुआ है कि,
ज्येष्ठस्य शुक्लदशमी संवत्सरमुखी स्मृता।
तस्यां स्नानं प्रकुवर्तीत दानञ्चैव विशेषतः॥
ज्येष्ठ शुक्ला दशमी संवत्सरमुखी मानी गई है इसमें स्नान और दान तो विशेष करके करें।
यां काञ्चित् सरितं पाप्य दद्याद्दर्भैस्तिलोदकम्।
मुच्यते दशमिः पापैः सुमहापातकोपमैः॥
किसी भी नदी पर जाकर अर्घ्य (पूजादिक) एवं तिलोदक (तीर्थ प्राप्ति निमित्तक तर्पण) अवश्य करें। ऐसा करने वाला महापातकों के बराबर के दस पापों से छूट जाता है।
वराह पुराण में लिखा हुआ है कि, ज्येष्ठ शुक्ला दशमी बुधवारी में हस्त नक्षत्र में श्रेष्ठ नदी स्वर्ग से अवतीर्ण हुई थी वह दस पापों को नष्ट करती है। इस कारण उस तिथि को दशहरा कहते हैं। ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, बुधवार, हस्त नक्षत्र, गर, आनंद, व्यतिपात, कन्या का चंद्र, वृषभ के सूर्य इन दस योगों में मनुष्य स्नान करके सब पापों से छूट जाता है।
भविष्य पुराण में लिखा हुआ है कि, जो मनुष्य इस दशहरा के दिन गंगा के पानी में खड़ा होकर दस बार गंगा स्तोत्र को पढ़ता है चाहे वो दरिद्र हो, चाहे असमर्थ हो वह भी प्रयत्नपूर्वक गंगा की पूजा कर उस फल को पाता है।
स्कन्दपुराण काशी खण्ड के अनुसार
ज्येष्ठे मासि सिते पक्षे दशम्यां हस्तसंयुते ।। गंगातीरे तु पुरुषो नारी वा भक्तिभावतः ।।. ३५ ।।
निशायां जागरं कुयाद्गंगां दशविधैर्हरे ।। पुष्पैः सुगंधैर्नैवेद्यैः फलैर्दशदशोन्मितैः ।।३६।।
प्रदीपैर्दशभिर्धूपैर्दशांगैर्गरुडध्वज ।। पूजयेच्छ्रद्धया धीमान्दशकृत्वो विधानतः ।। ३७ ।।
साज्यांस्तिलान्क्षिपेत्तोये गंगायाः प्रसृतीर्दश ।। गुडसक्तुमयान्पिंडान्दद्याच्च दशमंत्रतः ।। ३८ ।।
नमः शिवायै प्रथमं नारायण्यै पदं ततः ।। दशहरायै पदमिति गंगायै मंत्र एष वै ।। ३९ ।।
स्वाहांतः प्रणावादिश्च भवेद्विंशाक्षरो मनुः ।। पूजादानं जपो होमो ऽनेनैव मनुना स्मृतः ।। ४० ।।
हेम्ना रूप्येण वा शक्त्या गंगामूर्तिं विधाय च ।। वस्त्राच्छादितवक्त्रस्य पूर्णकुंभस्य चोपरि ।। ४१ ।।
प्रतिष्ठाप्यार्चयेद्देवीं पंचामृतविशोधिताम् ।। चतुर्भुजां त्रिनेत्रां च नदीनदनिषेविताम् ।। ४२ ।।
लावण्यामृतनिष्पंद संशीलद्गात्रयष्टिकाम् ।। पूर्णकुंभसितांभोज वरदाभयसत्कराम् ।। ४३ ।।
ततो ध्यायेत्सुसौम्या च चंद्रायुतसमप्रभाम् ।। चामरैर्वीज्यमानां च श्वेतच्छत्रोपशोभिताम ।। ४४ ।।
सुधाप्लावितभूपृष्ठां दिव्यगंधानुलेपनाम् ।। त्रैलौक्यपूजितपदां देवर्षिभिरभिष्टुताम् ।। ४५ ।।
ध्यात्वा समर्च्य मंत्रेण धूपदीपोपहारतः ।। मां च त्वां च विधिं ब्रध्नं हिमवंतं भगीरथम् ।। ४६ ।।
प्रतिमाग्रे समभ्यर्च्य चंदनाक्षतनिर्मितान् ।। दशप्रस्थतिलान्दद्याद्दशविप्रेभ्य आदरात् ।। ४७ ।।
पलं च कुडवः प्रस्थ आढको द्रोण एव च ।। धान्यमानेन बोद्धव्याः क्रमशोमी चतुर्गुणाः ।। ४८ ।।
मत्स्य कच्छप मंडूक मकरादि जलेचरान् ।। हंसकारंडव बक चक्रटिट्टिभसारसान् ।। ४९ ।।
यथाशक्ति स्वर्णरूप्य ताम्रपृष्ठविनिर्मितान् ।। अभ्यर्च्य गंधकुसुमैर्गंगायां प्रक्षिपेद्व्रती ।। ५० ।।
एवं कृत्वा विधानेन वित्तशाठ्यं विवर्जितः ।। उपवासी वक्ष्यमाणैर्दशपापैः प्रमुच्यते ।। ५१ ।।
अदत्तानामुपादानं हिंसाचैवाविधानतः ।। परदारोपसेवा च कायिकं त्रिविधं स्मृतम् ।। ५२ ।।
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चैव सर्वशः ।। असंबद्ध प्रलापश्च वाङ्मयंस्याच्चतुर्विधम् ।। ५३ ।।
परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिंतनम् ।। वितथाभिनिवेशश्च मानसं त्रिविधं स्मृतम् ।। ।। ५४ ।।
एतैर्दशविधैः पापैर्दशजन्मसमुद्भवैः ।। मुच्यते नात्र संदेहः सत्यं सत्यं गदाधर ।। ५५ ।।
उत्तरेन्नरकात्पूर्वान्दशघोराद्दशावरान् ।। वक्ष्यमाणमिदं स्तोत्रं गंगाग्रे श्रद्धया जपेत् ।। ५६ ।।
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र युक्त दशमी तिथि को स्त्री हो या पुरुष भक्ति भाव से गंगाजी के तट पर रात्रि में जागरण करें और दस प्रकार के दस-दस सुगन्धित पुष्प, फल, नैवैद्य, दस दीप और दशांग धुप के द्वारा बुद्धिमान पुरुष श्रद्धा और विधि के साथ दस बार गंगा जी की पूजा करे। गंगाजी के जल में घृतसहित तिलों की दस अञ्जलि डालें फिर गुड़ और सत्तू के दस पिण्ड बनाकर उन्हें भी गंगाजी में डालें। यह सब कार्य मंत्र द्वारा होना चाहिए। मंत्र इस प्रकार है - ‘ॐ नमः शिवायै नारायण्यै दशहरायै गंगायै स्वाहा’ यह बीस अक्षर का मंत्र है। गंगाजी के लिए पूजा, दान, जप, होम सब इसी मंत्र से करने योग्य है। इस प्रकार मंत्रोच्चारण के साथ धूप, दीप आदि समर्पण करते हुए पूजा करके मुझ शिव का, तुम विष्णु का, ब्रह्मा का, सूर्य का, हिमवान पर्वत का और राजा भागीरथ का भलीभाँति पूजन करे। दस ब्राह्मणों को आदरपूर्वक दस सेर तिल दें। इस प्रकार विशां से पूजा संपन्न करके दिनभर उपवास करने वाला पुरुष निम्नांकित दस पापों से मुक्त हो जाता है। बिना दी हुई वस्तु लेना, निषिद्ध हिंसा, परस्त्री-संगम - यह तीन प्रकार का दैहिक पाप माना गया है। कठोर वचन मुँह से निकालना, झूठ बोलना, सब ओर चुगली करना और अंट-संट बातें करना - ये वाणी से होने वाले चार प्रकार के पाप हैं। दूसरों के धन को लेने का विचार करना, मन से दूसरों का बुरा सोचना और असत्य वस्तुओं में आग्रह रखना - ये तीन प्रकार के मानसिक पाप कहे गए हैं। पूर्वोक्त प्रकार से दान-पूजा और व्रत करने वाला पुरुष दस जन्मों में उपार्जित इन दस प्रकार के पापों से निःसन्देह छूट जाता है। तदन्तर गंगाजी के सम्मुख श्रद्धापूर्वक इस स्तोत्र को पढ़े।
॥ श्री गङ्गा स्तुति - स्कन्द पुराणम् ॥
ईश्वर उवाच -
ॐ नमः शिवायै गङ्गायै शिवदायै नमो नमः ।
नमस्ते विष्णुरूपिण्यै ब्रह्ममूर्त्यै नमो नमः ॥१॥
नमस्ते रुद्ररूपिण्यै शाङ्कर्यै ते नमो नमः ।
सर्वदेव स्वरूपिण्यै नमो भेषज मूर्त्तये ॥२॥
सर्वस्य सर्व व्याधीनां भिषक् श्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते ।
स्थास्नु जङ्गम संभूत विषहन्त्र्यै नमोऽस्तु ते ॥३॥
संसार विष नाशिन्यै जीवनायै नमोऽस्तु ते ।
ताप त्रितय संहन्त्र्यै प्राणेश्यै ते नमो नमः ॥४॥
शान्ति सन्तान कारिण्यै नमस्ते शुद्ध मूर्त्तये ।
सर्व संशुद्धि कारिण्यै नमः पापारि मूर्त्तये ॥५॥
भुक्ति मुक्ति प्रदायिन्यै भद्रदायै नमो नमः ।
नमस् त्रैलोक्य भूषायै त्रिपथायै नमो नमः ॥६॥
नमस् त्रिशुक्ल संस्थायै क्षमावत्यै नमो नमः ।
त्रिहुताशन संस्थायै तेजोवत्यै नमो नमः ॥७॥
नन्दायै लिङ्गधारिण्यै सुधधारात्मने नमः ।
नमस्ते विश्व मुख्यायै रेवत्यै ते नमो नमः ॥८॥
बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु लोकधात्र्यै नमोऽस्तु ते ।
नमस्ते विश्व मित्रायै नन्दिन्यै ते नमो नमः ॥९॥
पृथ्व्यै शिवा ऽ मृतायै च सुवृषायै नमो नमः ।
परापर शताढ्यायै तारायै ते नमो नमः ॥१०॥
पाशजाल निकृन्तिन्यै अभिन्नायै नमोऽस्तु ते ।
शान्तायै च वरिष्ठायै वरदायै नमो नमः ॥११॥
उग्रायै सुखजग्ध्तै च सञ्जीविन्यै नमोऽस्तु ते ।
ब्रह्मिष्ठायै ब्रह्मादायै दुरितघ्न्यै नमो नमः ॥१२॥
प्रणतार्त्ति प्रभञ्जिन्यै जगन्मात्रे नमोऽस्तु ते ।
सर्वापत् प्रतिपक्षायै मङ्गलायै नमो नमः ॥१३॥
शरणागत दीनार्त्त परित्राण परायणे ।
सर्वस्यार्त्ति हरे देवी नारायणी नमोऽस्तु ते ॥१४॥
निर्लोपायै दुर्गहन्त्र्यै दक्षायै ते नमो नमः ।
परापर परायै च गङ्गे निर्वाण दायिनी ॥१५॥
गङ्गे ममा ऽ ग्रतो भूया गङ्गे मे तिष्ठ पृष्ठतः ।
गङ्गे मे पार्श्वयोरेधि गङ्गे त्वय्यस्तु मे स्थितिः ॥१६॥
आदौ त्वं अन्ते मध्ये च सर्वं त्वं गाङ्गते शिवे ।
त्वमेव मूलं प्रकृतिस् त्वं पुमान् पर एव हि ॥१६॥
गङ्गे त्वं परमात्मा च शिवस् तुभ्यं नमः शिवे ॥१७॥
॥ फलश्रुतिः ॥
य इदं पठते स्तोत्रं शृणुयाच् छ्रद् धया ऽ पि यः ।
दशधा मुच्यते पापैः काय वाक् चित्त संभवैः ॥१८॥
रोगस्थो रोगतो मुच्येद् विपद्भ्यश् च विपद्यतः ।
मुच्यते बन्धनाद् बद्धो भीतो भीतेः प्रमुच्यते ॥१९॥
सर्वान् कामान् अवाप्नोति प्रेत्य च त्रिदिवं व्रजेत् ।
दिव्यं विमानमारुह्य दिव्यस्त्री परिजीवितः ॥२०॥
गृहेऽपि लिखितं यस्य सदा तिष्ठति धारितम् ।
ना ऽ ग्नि चौर भयं तस्य न सर्पादि भयं क्वचित् ॥२१॥
ज्येष्ठे मासे सिते पक्षे दशमी हस्त संयुता ।
संहरेत् त्रिविधं पापं बुध वारेण संयुता ॥२२॥
तस्यां दशम्यां एतच् च स्तोत्रं गङ्गा जले स्थितः ।
यः पठेद् दशकृत्वस्तु दरिद्रो वापि चा ऽ क्षमः ॥२३॥
सोऽपि तत्फलं आप्नोति गङ्गां संपूज्य यत्नतः ।
पूर्वोक्तेन विधानेन यत्फलं संप्रकीर्तितम् ॥२४॥
यथा गौरी तथा गङ्गा तस्माद गौर्यास्तु पूजने ।
यो विधिर् विहितः सम्यक् सोऽपि गङ्गा प्रपूजने ॥२५॥
यथाऽहं त्वं तथा विष्णो यथा त्वन्तु तथा ह्युमा ।
उमा यथा तथा गङ्गा च तरूपं न भिद्यते ॥२६॥
विष्णु रुद्रा ऽ न्तरं चैव यो ब्रूते मूढ धीस्तु सः ॥२७॥
॥ इति स्कन्दे महापुराणे एकाशीति साहस्र्यां संहितायां तृतीये काशी खण्डे श्रीगङ्गा दशहरा स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
पद्म पुराण में भक्ति को तीन भागों में विभक्त करके इन दस दोषों को दूर करना बताया है। ध्यान, धारणा, बुद्धि आदि द्वारा जो वेदों का स्मरण है, यह मानसी भक्ति है जो विष्णु में प्रीति बढाने वाली है। मन्त्रवेद समुच्चार, अविश्रांत विचिंतन, जाप्य व आरण्यक वाचिकी भक्ति कहलाती है। व्रतोपवास, नियम, पंच इन्द्रियों की जय कायिकी भक्ति कहलाती है। कायिकी भक्ति में नृत्य, गीत, बलि, भक्ष्य, भोज्य, अन्नपान आदि के द्वारा की जाने वाली लौकिक भक्ति भी सम्मिलित है। स्पष्ट है कि यदि इन तीन प्रकार की भक्तियों में से एक में भी रस की गंगा बहने लगे तो पाप तो दूर हो ही जाएंगे।
विविधा भक्तिरुद्दिष्टा मनोवाक्कायसंभवा ।।
लौकिकी वैदिकी चापि भवेदाध्यात्मिकी तथा । ध्यानधारणया बुद्ध्या वेदानां स्मरणं हि यत् ।।
विष्णुप्रीतिकरी चैषा मानसी भक्तिरुच्यते । मंत्रवेदसमुच्चारैरविश्रांत विचिंतनैः ।।
जाप्यैश्चारण्यकैश्चैव वाचिकी भक्तिरुच्यते । व्रतोपवासनियमैः पञ्चेंद्रियजयेन च ।।
कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिः सर्वार्थसाधिनी । भूषणैर्हेमरत्नांकैश्चित्राभिर्वाग्भिरेव च ।।
वासः प्रतिसरैः सूत्रैः पावकव्यजनोच्छ्रितैः । नृत्यवादित्रगीतैश्च सर्वबल्युपहारकैः ।।
भक्ष्यभोज्यान्नपानैश्च या पूजा क्रियते नरैः । नारायणंसमुद्दिश्य भक्तिः सा लौकिकी मता ।।
कायिकी सैव निर्दिष्टा भक्तिःसर्वार्थसाधिकी ।
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।।जय श्री राम।।
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