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Wednesday, 30 March 2016

Shri yantra siddhi श्री यन्त्र सिद्धि

श्रीयंत्र स्वयं सिद्ध करेँ।(संक्षिप्त विधि)

मित्रों,
 वैसे तो इसकी सिद्धी इतनी लंबी और कठिन है कि शायद 10 वर्ष या 1जीवन भी कम पड़े पर T.V. पर बिकने वाले और चमत्कारोँ के दावे करने वालोँ यंत्रोँ के धोखे मेँ न आकर नवरात्र के पर्व पर घर मेँ खुद ही श्रीयंत्र सिद्ध करेँ क्योँकि उन्हे(T.V. वाले को) भी आपकी पूजा एवँ श्रद्धा जाग्रत करती है न कि  बेचने वाले।
सर्वप्रथम  अपनी श्रद्धानुसार चाँदी, ताँबा या स्फटिक का यंत्र ले आएँ और सम्भव हो तो समस्त नवरात्र यानि प्रतिपदा से नवमी पर्यन्त करें जो सर्वोत्तम होगा।यदि न कर पाएं तो पञ्चमी, अष्टमी या नवमी को स्नानादि के बाद स्वच्छ वस्त्र पहने। एक लकड़ी की चौकी पर लाल कपड़ा बिछाकर उसपर चावल की ढेरी बनाएँ फिर एक थाली पर अष्टगंध से अष्टदल बनाकर उस पर यंत्र स्थापित करेँ।

अब यंत्र को गँगाजल तथा पँचाम्रत से स्नान कराते हुए इस मंत्र

"ऐँ ह्रीँ श्रीँ महालक्ष्मयै नमः"

का 108 जप करेँ और फिर शुद्ध जल से स्नान करा कर चावल की ढेरी पर स्थापित करेँ।
यंत्र के दाँयी ओर श्री गणेश व बाँयी ओर भगवान विष्णु का प्रतिमा या चित्र रख आह्वान व पूजन करेँ।

 अब यंत्र की शोडषोपचार या पंचोपचार पूजा करेँ, कमल, लाल कनेर, गुलाब, अनार के फूल, नारियल, बेलपत्र एवं बेल फल, नैवेद्य अर्पित करेँ और 51 या 108 बार श्रीसूक्त का पाठ निम्न मंत्र से सम्पुट करते हुए करेँ

"ऊँ श्रीँ हीँ श्रीँ कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीँ हीँ श्रीँ ऊँ महालक्ष्मयै नमः"।

 सम्पुट ऐसे करेँ यानि "1 मंत्र -1 सूक्त/ श्लोक- 1 मंत्र, 1 मंत्र -1 सूक्त/ श्लोक- 1 मंत्र" और  पाठ पूर्ण होने के बाद आरती कर भोग लगाएँ तथा प्रसाद बाँटेँ व यंत्र को घर के मंदिर, तिजोरी मेँ स्थापित करेँ व सामग्री को प्रवाहित कर देँ।

प्रतिदिन श्रीसूक्त का 1 पाठ अवश्य करेँ तथा हर पूर्णिमा एवं अमावस्या पर सम्पुटित पाठ के साथ 1 माला मँत्र जप करेँ। कुछ ही दिनो मेँ आप इसका प्रभाव देखेँगे और माँ के आशीष से आपके कष्टोँ का नाश होगा तथा अन्ऩ, धन, यश व स्वास्थ्य का लाभ व उन्ऩति होगी।

अन्य किसी जानकारी, समस्या समाधान एवम् कुंडली विश्लेषण हेतु सम्पर्क कर सकते हैं।

।।जय श्री राम।।
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8909521616( whats app)

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Tuesday, 15 March 2016

Yagya healing therapy यज्ञ से रोग चिकित्सा

यज्ञ से विभिन्न रोगों की चिकित्सा

यज्ञ पर्यावरण की शुद्धि का सर्वश्रेष्ठ साधन है | यह
वायुमंडल को शुद्ध रखता है | वर्षा होकर धनधान्य
की आपूर्ति होती है | इससे वातावरण शुद्ध व रोग रहित
होता है |एक ऐसी ओषध है जो सुगंध भी देती है,
पुष्टि भी देती है तथा वातावरण को रोगमुक्त रहता है | इसे
करने वाला व्यक्ति सदा रोग मुक्त व प्रसन्नचित रहता है |
इतना होने पर भी कभी कभी मानव किन्ही संक्रमित रोगाणुओं के
आक्रमण से रोग ग्रसित हो जाता है | इस रोग से छुटकारा पाने
के लिए उसे अनेक प्रकार की दवा लेनी होती है | हवन यज्ञ
जो बिना किसी कष्ट व् पीड़ा के रोग के रोगाणुओं को नष्ट कर
मानव को शीघ्र निरोग करने की क्षमता रखते हैं |
साथ
यज्ञ किया जावे तो निश्चत ही लाभ होगा |

कैंसर नाशक हवन

गुलर के फूल, अशोक की छाल, अर्जन की छाल, लोध, माजूफल,
दारुहल्दी, हल्दी, खोपारा, तिल, जो , चिकनी सुपारी,
शतावर , काकजंघा, मोचरस, खस, म्न्जीष्ठ, अनारदाना, सफेद
चन्दन, लाल चन्दन, ,गंधा विरोजा, नारवी ,जामुन के पत्ते,
धाय के पत्ते, सब को सामान मात्रा में लेकर चूर्ण करें तथा इस
में दस गुना शक्कर व एक गुना केसर दिन में तीन बार हवन करें |

संधि गत ज्वर ( जोड़ों का दर्द )

संभालू ( निर्गुन्डी ) के पत्ते , गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के
पत्ते, गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, रल आदि का संभाग
लेकर चूरन करें , घी मिश्रित धुनी दें, हवं करीं

निमोनियां नाशक

पोहकर मूल, वाच, लोभान, गुग्गल, अधुसा, सब को संभाग ले
चूरन कर घी सहित हवं करें व धुनी दें |

जुकाम नाशक

खुरासानी अजवायन, जटामासी , पश्मीना कागज, लाला बुरा ,सब
को संभाग ले घी सचूर्ण कर हित हवं करें व धुनी दें |

पीनस ( बिगाड़ा हुआ जुकाम )

बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, नीम के पत्ते, वा|य्वडिंग,सहजने
की छाल , सब को संभाग ले चूरन कर इस में धुप
का चुरा मिलाकर हवं कारें व धुनी दें

श्वास - कास नाशक

बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, वच, पोहकर मूल, अडूसा -
पत्र, सब का संभाग कर्ण लेकर घी सहित हवं कर धुनी दें |

सर दर्द नाशक

काले तिल और वाय्वडिंग चूरन संभाग ले कर घी सहित हवं करने
से व धुनी देने से लाभ होगा |

चेचक नाशक - खसरा

गुग्गल, लोभान, नीम के पत्ते, गंधक , कपूर, काले तिल,
वाय्वासिंग , सब का संभाग चूरन लेकर घी सहित हवं करें व
धुनी दें

जिह्वा तालू रोग नाशक

मुलहठी, देवदारु, गंधा विरोजा, राल, गुग्गल, पीपल, कुलंजन,
कपूर और लोभान सब को संभाग ले घी सहित हवं करीं व धुनी दें
|
टायफायड :

यह एक मौसमी व भयानक रोग होता है | इस रोग के कारण
इससे यथा समय उपचार न होने से रोगी अत्यंत कमजोर
हो जाता है तथा समय पर निदान न होने से मृत्यु
भी हो सकती है | उपर्वर्णित ग्रन्थों के आधार पर यदि ऐसे
रोगी के पास नीम , चिरायता , पितपापदा , त्रिफला ,
आदि जड़ी बूटियों को समभाग लेकर इन से हवन किया जावे
तथा इन का धुआं रोगी को दिया जावे तो लाभ होगा |

ज्वर :

ज्वर भी व्यक्ति को अति परेशान करता है किन्तु
जो व्यक्ति प्रतिदिन यग्य करता है , उसे ज्वर नहीं होता |
ज्वर आने की अवास्था में अजवायन से यज्ञ करें तथा इस
की धुनी रोगी को दें | लाभ होगा |

नजला, , सिरदर्द जुकाम

यह मानव को अत्यंत परेशान करता है | इससे श्रवण शक्ति ,
आँख की शक्ति कमजोर हो जाते हैं तथा सर के बाल सफ़ेद होने
लगते हैं | लम्बे समय तक यह रोग रहने
पर इससे तायिफायीद या दमा आदि भयानक रोग भी हो सकते हैं
| इन के निदान के लिए मुनका से हवन करें तथा इस
की धुनी रोगी को देने से लाभ होता है |

नेत्र ज्योति

नेत्र ज्योति बढ़ाने का भी हवन एक उत्तम साधन है | इस के
लिए हवन में शहद की आहुति देना लाभकारी है | शहद का धुआं
आँखों की रौशनी को बढ़ता है

मस्तिष्क को बल

मस्तिष्क की कमजोरी मनुष्य को भ्रांत बना देती है | इसे दूर
करने के लिए शहद तथा सफ़ेद चन्दन से यग्य करना चाहिए
तथा इस का धुन देना उपयोगी होता है |

वातरोग

: वातरोग में जकड़ा व्यक्ति जीवन से निराश हो जाता है | इस
रोग से बचने के लिए यज्ञ सामग्री में पिप्पली का उपयोग
करना चाहिए | इस के धुएं से रोगी को लाभ मिलता है |

मनोविकार

मनोरोग से रोगी जीवित ही मृतक समान हो जाता है | इस के
निदान के लिए गुग्गल तथा अपामार्ग का उपयोग करना चाहिए
| इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |

मधुमेह :

यह रोग भी रोगी को अशक्त करता है | इस रोग से
छुटकारा पाने के लिए हवन में गुग्गल, लोबान , जामुन वृक्ष
की छाल, करेला का द्न्थल, सब संभाग मिला आहुति दें व् इस
की धुनी से रोग में लाभ होता है |

उन्माद मानसिक

यह रोग भी रोगी को मृतक सा ही बना देता है | सीताफल के
बीज और जटामासी चूरन समभाग लेकर हवन में डालें तथा इस
का धुआं दें तो लाभ होगा |

चित्भ्रम

यह भी एक भयंकर रोग है | इस के लिए कचूर ,खास,
नागरमोथा, महया , सफ़ेद चन्दन, गुग्गल, अगर,
बड़ी इलायची ,नारवी और शहद संभाग लेकर यग्य करें
तथा इसकी धुनी से लाभ होगा |

पीलिया

इस के लिए देवदारु , चिरायत, नागरमोथा, कुटकी, वायविडंग
संभाग लेकर हवन में डालें | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |
है |

क्षय रोग

यह रोग भी मनुष्य को क्षीण कर देता है तथा उसकी मृत्यु
का कारण बनता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए गुग्गल, सफेद
चन्दन, गिलोय , बांसा(अडूसा) सब का १०० - १०० ग्राम
का चूरन कपूर ५- ग्राम, १०० ग्राम घी , सब को मिला कर
हवन में डालें | इस क
धुएं से रोगी को लाभ होगा |

मलेरिया

मलेरिया भी भयानक पीड़ा देता है | ऐसे रोगी को बचाने के लिए
गुग्गल , लोबान , कपूर, हल्दी , दारुहल्दी, अगर, वाय्वडिंग,
बाल्छाद, ( जटामासी) देवदारु, बच , कठु, अजवायन , नीम के
पते समभाग लेकर संभाग ही घी डाल हवन करें | इस का धुआं लाभ
देगा |

अपराजित या सर्वरोग नाशक धुप

गुग्गल, बच, गंध, तरीन, नीम के पते, अगर, रल, देवदारु,
छिलका सहित मसूर संभाग घी के साथ हवन करें | इसके धुआं से
लाभ होगा तथा परिवार रोग से बचा रहेगा|

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।।जय श्री राम।।
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Indrakshi Stotram ॥ इन्द्राक्षीस्तोत्रम् ॥

॥ इन्द्राक्षीस्तोत्रम् ॥

श्रीगणेशाय नमः ...

पूर्वन्यासः
                    ॐ अस्य श्री इन्द्राक्षीस्तोत्रमहामन्त्रस्य, शचीपुरन्दर ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, इन्द्राक्षी दुर्गा देवता, लक्ष्मीर्बीजं, भुवनेश्वरीति शक्तिः, भवानीति कीलकम् , इन्द्राक्षीप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
! करन्यासः ॐ इन्द्राक्षीत्यङ्गुष्ठाभ्यां नमः । ॐ महालक्ष्मीति तर्जनीभ्यां नमः । ॐ माहेश्वरीति मध्यमाभ्यां नमः । ॐ अम्बुजाक्षीत्यनामिकाभ्यां नमः । ॐ कात्यायनीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ कौमारीति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।

अङ्गन्यासः ॐ इन्द्राक्षीति हृदयाय नमः । ॐ महालक्ष्मीति शिरसे स्वाहा । ॐ माहेश्वरीति शिखायै वषट् । ॐ अम्बुजाक्षीति कवचाय हुम् । ॐ कात्यायनीति नेत्रत्रयाय वौषट् । ॐ कौमारीति अस्त्राय फट् । ॐ भूर्भुवः स्वरोम् इति दिग्बन्धः ॥

ध्यानम् .

नेत्राणां दशभिश्शतैः परिवृतामत्युग्रचर्माम्बरां हेमाभां महतीं विलम्बितशिखा-मामुक्तकेशान्विताम् । घण्टामण्डित-पादपद्मयुगलां नागेन्द्र-कुम्भस्तनीमिन्द्राक्षीं परिचिन्तयामि मनसा कल्पोक्तसिद्धिप्रदाम् ॥ इन्द्राक्षीं द्विभुजां देवीं पीतवस्त्रद्वयान्विताम् । वामहस्ते वज्रधरां दक्षिणेन वरप्रदाम् ॥ इन्द्राक्षीं सहस्रयुवतीं नानालङ्कार-भूषिताम् । प्रसन्नवदनाम्भोजां अप्सरोगण-सेविताम् ॥ द्विभुजां सौम्यवदनां पाशाङ्कुशधरां परा । त्रैलोक्यमोहिनीं देवीमिन्द्राक्षीनामकीर्तिताम् ॥ पीताम्बरां वज्रधरैकहस्तां नानाविधालङ्करणां प्रसन्नाम् । त्वामप्सरस्सेवित-पादपद्माम् इन्द्राक्षि वन्दे शिवधर्मपत्नीम् ॥ इन्द्रादिभिः सुरैर्वन्द्यां वन्दे शङ्करवल्लभाम् । एवं ध्यात्वा महादेवीं जपेत् सर्वार्थसिद्धये ॥

पूजन............लं पृथिव्यात्मने गन्धं समर्पयामि । हं आकाशात्मने पुष्पैः पूजयामि । यं वाय्वात्मने धूपमाघ्रापयामि । रं अग्न्यात्मने दीपं दर्शयामि । वं अमृतात्मने अमृतं महानैवेद्यं निवेदयामि । सं सर्वात्मने सर्वोपचार-पूजां समर्पयामि ।

कवच..
वज्रिणी पूर्वतः पातु चाग्नेय्यां परमेश्वरी । दण्डिनी दक्षिणे पातु नैरॄत्यां पातु खड्गिनी ॥ १॥ पश्चिमे पाशधारी च ध्वजस्था वायु-दिङ्मुखे । कौमोदकी तथोदीच्यां पात्वैशान्यां महेश्वरी ॥ २॥ उर्ध्वदेशे पद्मिनी मामधस्तात् पातु वैष्णवी । एवं दश-दिशो रक्षेत् सर्वदा भुवनेश्वरी ॥ ३॥

। इन्द्र उवाच ।

इन्द्राक्षी नाम सा देवी दैवतैः समुदाहृता । गौरी शाकम्भरी देवी दुर्गा नाम्नीति विश्रुता ॥ ४॥ नित्यानन्दा निराहारा निष्कलायै नमोऽस्तु ते । कात्यायनी महादेवी चन्द्रघण्टा महातपाः ॥ ५॥ सावित्री सा च गायत्री ब्रह्माणी ब्रह्मवादिनी । नारायणी भद्रकाली रुद्राणी कृष्णपिङ्गला ॥ ६॥ अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी । मेघस्वना सहस्राक्षी विकराङ्गी जडोदरी ॥ ७॥ महोदरी मुक्तकेशी घोररूपा महाबला । अजिता भद्रदाऽनन्ता रोगहर्त्री शिवप्रदा ॥ ८॥ शिवदूती कराली च प्रत्यक्ष-परमेश्वरी । इन्द्राणी इन्द्ररूपा च इन्द्रशक्तिः परायणा ॥ ९॥ सदा संमोहिनी देवी सुन्दरी भुवनेश्वरी । एकाक्षरी परब्रह्मस्थूलसूक्ष्मप्रवर्धिनी ॥ १०॥ रक्षाकरी रक्तदन्ता रक्तमाल्याम्बरा परा । महिषासुर-हन्त्री च चामुण्डा खड्गधारिणी ॥ ११॥ वाराही नारसिंही च भीमा भैरवनादिनी । श्रुतिः स्मृतिर्धृतिर्मेधा विद्या लक्ष्मीः सरस्वती ॥ १२॥ अनन्ता विजयाऽपर्णा मानस्तोकाऽपराजिता । भवानी पार्वती दुर्गा हैमवत्यम्बिका शिवा ॥ १३॥ शिवा भवानी रुद्राणी शङ्करार्ध-शरीरिणी । ऐरावतगजारूढा वज्रहस्ता वरप्रदा ॥ १४॥ नित्या सकल-कल्याणी सर्वैश्वर्य-प्रदायिनी । दाक्षायणी पद्महस्ता भारती सर्वमङ्गला ॥ १५॥ कल्याणी जननी दुर्गा सर्वदुर्गविनाशिनी । इन्द्राक्षी सर्वभूतेशी सर्वरूपा मनोन्मनी ॥ १६॥ महिषमस्तक-नृत्य-विनोदन-स्फुतरणन्मणि-नूपुर-पादुका । जनन-रक्षण-मोक्षविधायिनी जयतु शुम्भ-निशुम्भ निषूदिनी ॥ १७॥ सर्वमङ्गल-माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके । शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तुते ॥ १८॥ ॐ ह्रीं श्रीं इन्द्राक्ष्यै नमः। ॐ नमो भगवति, इन्द्राक्षि, सर्वजन-सम्मोहिनि, कालरात्रि, नारसिंहि, सर्वशत्रुसंहारिणि । अनले, अभये, अजिते, अपराजिते, महासिंहवाहिनि, महिषासुरमर्दिनि । हन हन, मर्दय मर्दय, मारय मारय, शोषय शोषय, दाहय दाहय, महाग्रहान् संहर संहर ॥ १९॥ यक्षग्रह-राक्षसग्रह-स्कन्धग्रह-विनायकग्रह-बालग्रह-कुमारग्रह- भूतग्रह-प्रेतग्रह-पिशाचग्रह-आदीन् मर्दय मर्दय ॥ २०॥ भूतज्वर-प्रेतज्वर-पिशाचज्वरान् संहर संहर । धूमभूतान् सन्द्रावय सन्द्रावय । शिरश्शूल-कटिशूल-अङ्गशूल-पार्श्वशूल- पाण्डुरोगादीन् संहर संहर ॥ २१॥ य-र-ल-व-श-ष-स-ह, सर्वग्रहान् तापय तापय, संहर संहर, छेदय छेदय ह्रां ह्रीं ह्रूं फट् स्वाहा ॥ २२॥

जप समर्पण.
गुह्यात्-गुह्य-गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम् । सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ॥ २३॥

फलश्रुतिः ..


नारायण उवाच ॥ एवं नामवरैर्देवी स्तुता शक्रेण धीमता । आयुरारोग्यमैश्वर्यमपमृत्यु-भयापहम् ॥ १॥ वरं प्रादान्महेन्द्राय देवराज्यं च शाश्वतम् । इन्द्रस्तोत्रमिदं पुण्यं महदैश्वर्य-कारणम् ॥ २ ॥ क्षयापस्मार-कुष्ठादि-तापज्वर-निवारणम् । चोर-व्याघ्र-भयारिष्ठ-वैष्णव-ज्वर-वारणम् ॥ ३॥ माहेश्वरमहामारी-सर्वज्वर-निवारणम् । शीत-पैत्तक-वातादि-सर्वरोग-निवारणम् ॥ ४॥ शतमावर्तयेद्दस्तु मुच्यते व्याधिबन्धनात् । आवर्तन-सहस्रात्तु लभते वाञ्छितं फलम् ॥ ५॥ राजानं च समाप्नोति इन्द्राक्षीं नात्र संशय । नाभिमात्रे जले स्थित्वा सहस्रपरिसङ्ख्यया ॥ ६॥ जपेत्स्तोत्रमिदं मन्त्रं वाचासिद्धिर्भवेद्‍ध्रुवम् । सायम्प्रातः पठेन्नित्यं षण्मासैः सिद्धिरुच्यते ॥ ७॥ संवत्सरमुपाश्रित्य सर्वकामार्थसिद्धये । अनेन विधिना भक्त्या मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥ ८॥ सन्तुष्टा च भवेद्देवी प्रत्यक्षा सम्प्रजायते । अष्टम्यां च चतुर्दश्यामिदं स्तोत्रं पठेन्नरः ॥ ९॥ धावतस्तस्य नश्यन्ति विघ्नसङ्ख्या न संशयः । कारागृहे यदा बद्धो मध्यरात्रे तदा जपेत् ॥ १०॥ दिवसत्रयमात्रेण मुच्यते नात्र संशयः । सकामो जपते स्तोत्रं मन्त्रपूजाविचारतः ॥ ११॥ पञ्चाधिकैर्दशादित्यैरियं सिद्धिस्तु जायते । रक्तपुष्पै रक्तवस्त्रै रक्तचन्दनचर्चितैः ॥ १२॥ धूपदीपैश्च नैवेद्यैः प्रसन्ना भगवती भवेत् । एवं सम्पूज्य इन्द्राक्षीमिन्द्रेण परमात्मना ॥ १३॥ वरं लब्धं दितेः पुत्रा भगवत्याः प्रसादतः । एतत् स्त्रोत्रं महापुण्यं जप्यमायुष्यवर्धनम् ॥ १४॥ ज्वरातिसार-रोगाणामपमृत्योर्हराय च । द्विजैर्नित्यमिदं जप्यं भाग्यारोग्यमभीप्सुभिः ॥ १५॥ ॥

इति इन्द्राक्षी-स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

इस इन्द्राक्षी स्तोत्र का पथ करने से मनुष्य निरोगी होकर १०० वर्ष की आयु प्राप्त करता है। उसके समस्त शत्रु नष्ट हो जाते है और वो धन पुत्रादि से युत हो सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करता है.

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॥जय श्री राम॥

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Sunday, 6 March 2016

भौमवती अमावस्या पर करें सुख सम्पत्ति हेतु यह प्रयोग

भौमवती अमावस्या पर करें सुख सम्पत्ति हेतु यह प्रयोग
मित्रों,
8 मार्च 2016 मंगलवार को भौमवती अमावस्या पर मंगलवार, शतभिशा नक्षत्र और अमावस्या का विशेष दुर्लभ योग बन रहा है ।
इस दिन माँ भगवती की पूजा का करके उन्हें प्रसन्न करके सुख सम्पदा ऐश्वर्य की प्राप्ति की जा सकती है इसका उल्लेख दुर्गा अष्टोत्तर शतनाम स्त्रोत के श्लोक संख्या 18,19,20 में किया गया है ।
इस विशेष योग का प्रारम्भ 0 10.37 से रात्रि 11.35 तक रहेगा सभी भक्तजन लाभ उठा सकते हैं।
प्रातः 11:08 से दोपहर 12:35 तक विशेष लाभ और अमृत योग हैं इस समय यदि आप कर पाएं तो अति उत्तम होगा अन्यथा रात्रि तक किसी भी समय अवश्य करें।
ये दुर्लभ योग 8 वर्ष पूर्व आया था अब 16 वर्ष बाद आएगा।
श्री दुर्गा अष्टोत्तरशत नाम को भोज पत्र में लिख कर ताबीज़ में धारण करे ।
लिखने की स्याही की सामग्री स्तोत्र के अंत में ही वर्णित है।
श्रीदुर्गाष्टोत्तरशतनामस्तोत्रम् (श्री दुर्गा के एक सौ आठ नाम)

>ईश्वर उवाच:
> शतनाम प्रवक्ष्यामि शृणुष्व कमलानने। यस्य प्रसादमात्रेण दुर्गा प्रीता भवेत् सती ॥1॥
> सती साध्वी भवप्रीता भवानी भवमोचनी। आर्या दुर्गा जया चाद्या त्रिनेत्रा शूलधारिणी ॥2॥
> पिनाकधारिणी चित्रा चण्डघण्टा महातपा:। मनो बुद्धिरहंकारा चित्तरूपा चिता चिति: ॥3॥
> सर्वमन्त्रमयी सत्ता सत्यानन्दस्वरूपिणी। अनन्ता भाविनी भाव्या भव्याभव्या सदागति: ॥4॥
> शाम्भवी देवमाता च चिन्ता रत्‍‌नप्रिया सदा। सर्वविद्या दक्षकन्या दक्षयज्ञविनाशिनी ॥5॥
> अपर्णानेकवर्णा च पाटला पाटलावती। पट्टाम्बरपरीधाना कलमञ्जीररञ्जिनी ॥6॥
> अमेयविक्रमा क्रूरा सुन्दरी सुरसुन्दरी। वनदुर्गा च मातङ्गी मतङ्गमुनिपूजिता ॥7॥
> ब्राह्मी माहेश्वरी चैन्द्री कौमारी वैष्णवी तथा। चामुण्डा चैव वाराही लक्ष्मीश्च पुरुषाकृति: ॥8॥
> विमलोत्कर्षिणी ज्ञाना क्रिया नित्या च बुद्धिदा। बहुला बहुलप्रेमा सर्ववाहनवाहना ॥9॥
> निशुम्भशुम्भहननी महिषासुरमर्दिनी। मधुकैटभहन्त्री च चण्डमुण्डविनाशिनी ॥10॥
> सर्वासुरविनाशा च सर्वदानवघातिनी। सर्वशास्त्रमयी सत्या सर्वास्त्रधारिणी तथा ॥11॥
> अनेकशस्त्रहस्ता च अनेकास्त्रस्य धारिणी। कुमारी चैककन्या च कैशोरी युवती यति: ॥12॥
> अप्रौढा चैव प्रौढा च वृद्धमाता बलप्रदा। महोदरी मुक्त केशी घोररूपा महाबला ॥13॥
> अग्निज्वाला रौद्रमुखी कालरात्रिस्तपस्विनी। नारायणी भद्रकाली विष्णुमाया जलोदरी ॥14॥
> शिवदूती कराली च अनन्ता परमेश्वरी। कात्यायनी च सावित्री प्रत्यक्षा ब्रह्मवादिनी ॥15॥
> य इदं प्रपठेन्नित्यं दुर्गानामशताष्टकम्। नासाध्यं विद्यते देवि त्रिषु लोकेषु पार्वति ॥16॥
> धनं धान्यं सुतं जायां हयं हस्तिनमेव च। चतुर्वर्ग तथा चान्ते लभेन्मुक्तिं च शाश्वतीम् ॥17॥
> कुमारीं पूजयित्वा तु ध्यात्वा देवीं सुरेश्वरीम्। पूजयेत् परया भक्त्या पठेन्नामशताष्टकम् ॥18॥
> तस्य सिद्धिर्भवेद् देवि सर्वै: सुरवरैरपि। राजानो दासतां यान्ति राज्यश्रियमवापनुयात् ॥19॥
> गोरोचनालक्त ककुङ्कुमेन सिन्दूरकर्पूरमधुत्रयेण। विलिख्य यन्त्रं विधिना विधिज्ञो भवेत् सदा धारयते पुरारि: ॥20॥
> भौमावास्यानिशामग्रे चन्द्रे शतभिषां गते। विलिख्य प्रपठेत् स्तोत्रं स भवेत् सम्पदां पदम् ॥21॥
अर्थ
शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं- कमलानने! अब मैं अष्टोत्तरशत (108) नाम का वर्णन करता हूँ, सुनो; जिसके प्रसाद (पाठ या श्रवण) मात्र से परम साध्वी भगवती दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं॥1॥सती (दक्ष की बेटी), साध्वी (आशावादी), भवप्रीता (भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली), भवानी (ब्रह्मांड की निवास), भवमोचनी (संसारबंधनों से मुक्त करने वाली), आर्या, दुर्गा, जया, आद्य (शुरुआत की वास्तविकता), त्रिनेत्र (तीन आँखों वाली), शूलधारिणी, पिनाकधारिणी (शिव का त्रिशूल धारण करने वाली), चित्रा (सुरम्य), चण्डघण्टा (प्रचण्ड स्वर से घण्टानाद करने वाली), महातपा: (भारी तपस्या करने वाली), मन: (मनन-शक्ति), बुद्धि: (बोधशक्ति), अहंकारी (अहंताका आश्रय), चित्तरूपा (वह जो सोच की अवस्था में है), चिता, चिति: (चेतना), सर्वमन्त्रमयी, सत्ता (सत्-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है), सत्यानन्दस्वरूपिणी (अनन्त आनंद का रुप), अनन्ता (जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं), भाविनी (सबको उत्पन्न करने वाली, ख़ूबसूरत औरत), भाव्या (भावना एवं ध्यान करने योग्य), भव्या (कल्याणरूपा, भव्यता के साथ), अभव्या (जिससे बढकर भव्य कुछ नहीं), सदागति (हमेशा गति में, मोक्ष दान), शाम्भवी (शिवप्रिया, शंभू की पत्नी), देवमाता, चिन्ता, रत्‍‌नप्रिया (गहने से प्यार), सर्वविद्या (ज्ञान का निवास), दक्षकन्या (दक्ष की बेटी), दक्षयज्ञविनाशिनी, अपर्णा (तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली), अनेकवर्णा (अनेक रंगों वाली), पाटला (लाल रंग वाली), पाटलावती (गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली), पट्टाम्बरपरीधाना (रेशमी वस्त्र पहनने वाली), कलमञ्जररञ्जिनी (मधुर ध्वनि करने वाले मञ्जीर/पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली), अमेयविक्रमा (असीम पराक्रमवाली), क्रूरा (दैत्यों के प्रति कठोर), सुन्दरी, सुरसुन्दरी, वनदुर्गा, मातङ्गी, मतङ्गमुनिपूजिता, ब्राह्मी, माहेश्वरी, इंद्री, कौमारी, वैष्णवी, चामुण्डा, वाराही, लक्ष्मी:, पुरुषाकृति: (वह जो पुस्र्ष का रूप ले ले), विमला (आनन्द प्रदान करने वाली), उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, नित्या, बुद्धिदा, बहुला, बहुलप्रेमा, सर्ववाहनवाहना, निशुम्भशुम्भहननी, महिषासुरमर्दिनि, मधुकैटभहंत्री, चण्डमुण्डविनाशिनि, सर्वासुरविनाशा, सर्वदानवघातिनी, सर्वशास्त्रमयी, सत्या, सर्वास्त्रधारिणी, अनेकशस्त्रहस्ता, अनेकास्त्रधारिणी, कुमारी, एककन्या, कैशोरी, युवती, यति, अप्रौढा (जो कभी पुराना ना हो), प्रौढा (जो पुराना है), वृद्धमाता, बलप्रदा, महोदरी, मुक्तकेशी, घोररूपा, महाबला, अग्निज्वाला, रौद्रमुखी, कालरात्रि:, तपस्विनी, नारायणी, भद्रकाली, विष्णुमाया, जलोदरी, शिवदूती, करली, अनन्ता (विनाशरहिता), परमेश्वरी, कात्यायनी, सावित्री, प्रत्यक्षा, ब्रह्मवादिनी ॥2-15॥देवी पार्वती! जो प्रतिदिन दुर्गाजी के इस अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करता है, उसके लिये तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है ॥16॥ वह धन, धान्य, पुत्र, स्त्री, घोडा, हाथी, धर्म आदि चार पुरुषार्थ तथा अन्त में सनातन मुक्ति भी प्राप्त कर लेता है ॥17॥ कुमारी का पूजन और देवी सुरेश्वरी का ध्यान करके पराभक्ति के साथ उनका पूजन करे, फिर अष्टोत्तरशत नाम का पाठ आरम्भ करे ॥18॥ देवि! जो ऐसा करता है, उसे सब श्रेष्ठ देवताओं से भी सिद्धि प्राप्त होती है। राजा उसके दास हो जाते हैं। वह राज्यलक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ॥19॥ गोरोचन, लाक्षा, कुङ्कुम, सिन्दूर, कपूर, घी (अथवा दूध), चीनी और मधु- इन वस्तुओं को एकत्र करके इनसे विधिपूर्वक यन्त्र लिखकर जो विधिज्ञ पुरुष सदा उस यन्त्र को धारण करता है, वह शिव के तुल्य (मोक्षरूप) हो जाता है ॥20॥ भौमवती अमावास्या की आधी रात में, जब चन्द्रमा शतभिषा नक्षत्र पर हों, उस समय इस स्तोत्र को लिखकर जो इसका पाठ करता है, वह सम्पत्तिशाली होता है ॥21॥
मित्रों ये स्वयं महादेव के मुखकमल से वर्णित महासिद्ध प्रयोग है अतः इसे करने में संशय का कोई स्थान नहीं है।
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।।जय श्री राम।।
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